सोमवार, 25 जनवरी 2010

नाथ दादा

नाथ दादा

कर्मचारियों में खासे लोकप्रिय नाथ दादा को सदैव मैंने समय का पाबंद पाया । समय का पाबंद इतना कि घड़ी की सुइयां 08:00 बजाने में कभी देरी कर दें पर नाथ दादा ठीक सुबह 08:00 बजे निर्माणी के अंदर होते। पिछले 10 वर्षों से उनकी यह विशिष्टठ कार्यशैली देख रहा हूँ। जब वह अराजपित्र अधिकारी थे तब भी और आज वे राजपत्रित अधिकारी हैं तब भी उनकी कार्यशैली में कोई परिवर्तन नहीं आया।

शासकीय कर्मचारियों की परीभाषा को झुठलाते हुए नाथ दादा ने अपने जीवन के कई वर्ष शासकीय प्रतिष्ठान को दे दिया । नाथ दादा का शासकीय प्रतिष्ठान मूलत: फैक्ट्री है जिसमें कार्य के घण्टे फैक्टरी एक्‍ट द्वारा पूर्व निर्धारित हैं। प्रत्येक कर्मचारी चाहे औद्योगिक हो या अनौद्योगिक उसे प्रात: 08:00 बजे पंच कर निर्माणी में आना होता है किन्तु राजपत्रित अधिकारियों को इस पंचिंग से छूट है और प्राय: अधिकांश अधिकारी 09:00 अथवा 09:15 बजे से पूर्व निर्माणी में नहीं आते है। इसके अतिरिक्तअ समयोपरि के दिन कभी-कभार ही कोई राजपत्रित अधिकारी भूले – भटके निर्माणी में आता है।

ऐसे में राजपत्रित अधिकारी होते हुए भी नाथ दादा को प्रतिदिन 08:00 बजे निर्माणी में उपस्थित हो जाते । मेरे मन में यह विचार बारम्बार उभरता आखिर क्या् कारण है कि राजपत्रित अधिकारी होते हुए भी नाथ दादा प्रात: 08:00 बजे ही निर्माणी में आ जाते हैं और तो और राविवार को समयोपरि के दिन जब विरले ही कोई राजपत्रित अधिकारी निर्माणी में आता हो, उस दिन भी नाथ दादा अपने पूर्व निर्धारित समय पर उपस्थिति दर्ज करा देते हैं।

रविवार को समयोपरि के दिन मौका देखकर मैंने नाथ दादा को घेर लिया और प्रात: 08:00 बजे आने का कारण पूछा बैठा? अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्‍कुराते हुए उन्होंने कहा "यह मेरी पहले से ही आदत है। मैं ऐसे देश का अधिकारी हूँ जहॉं सामान्य व्यक्ति रहते हैं। मैं उनके बीच का ही बना रहना चाहता हूँ।" आगे उन्होंने कहा "मैं कर्म को प्रधानता देता हूँ पद को नहीं। अमेरिका में कम्पनी का जनरल मैनेजर तथा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी दोनों पूर्व निर्धारित अवधि में पंचिंग कर ही कम्पनी में आते है।"

सत्य ही है जब एक अधिकारी कर्म को प्रधानता देगा तब उसका कर्मचारी कर्म की उपेक्षा कैसे कर पाएगा? शायद यही कारण है कि अन्य यूरोपीय देश अपनी विशिष्ट कार्य संस्कृति के कारण उत्पादकता में अपना परचम लहराए हुए हैं ।

क्या यह विचारधारा हमारे लिए आत्‍ममंथन का कारण नहीं ?