शनिवार, 2 अप्रैल 2011

क्‍या मूर्ख बनाना आसान है ?

क्‍या मूर्ख बनाना आसान है ?



बातों-बातों में ही हमने अपने मित्र से कहा , ‘रजा, क्‍या किसी को मूर्ख बनाना आसान है?’ इस पर हमारे मित्र श्री रजा ने पहले तो साधुओं की भॉंति अपनी भौंहे सिकोड़ी, कुछ देर चुप रहे फिर लम्‍बी सांस छोड़ते हुए बोल ‘’इसमें क्‍या दो राय है। आजकल तो यही व्‍यवसाय फुल फार्म में चल रहा है। यह भी कोई विचार मंथन का विषय है, मूर्ख बनाना तो बहुत आसान है।’’ मैंने पूछा कैसे ? इस पर रजा महाराज के चेहरे पर महात्‍माओं जैसी शान्ति छा गई । कुछ देर मौन रहने के पश्‍चात वे बोले ‘’ कैसे का जवाब मैं क्‍या दूँ, खुद ही जाकर ‘’दादा भाऊ ’’ से पूछ लो।‘’

रजा महाराज ने यह बात कह कर मेरे दिमाग के खुराफाती कीड़े को कुलबला दिया । अब तो मैंने प्रण कर लिया कि कैसे भी हो मूर्ख बनाने की कला सिखनी ही होगी। रजा महाराज ने ‘’ दादा भाऊ ’’ का नाम बतलाकर पहले ही उन्‍हें गुरू तथा मुझे शिष्‍य बना दिया था। मैं पूरी तैयारी के साथ ‘’दादा भाऊ ’’ से मिलने निकल पड़ा। उनके सेक्‍शन में पहुँचा तो देखा की दादा भाऊ अपनी मेज-कुर्सी पर विराजमान थे और चार-पॉंच लोग उन्‍हें घेरे बैठे थे। मैं उनके समीप पहुँचा और बस बोल पड़ा ‘’दादा भाऊ, क्‍या मूर्ख बनाना आसान है ?’’ यह सुनते ही वहॉं बैठे सभी लोग खिलखिलाकर ऐसे हँसने लगे जैसे कि मैंने कोई चुटकूला सुनाया हो। वहीं मेरे मित्र कलंत्रे जी भी थे। मुझे देखते ही वह बोल पड़े, ‘’अरे गुप्‍ता, यार तू सटक गया है क्‍या ?, कहा था न, हिन्‍दी का इतना ज्‍यादा काम मत कर। दिमाग पर असर हो गया न।‘’ इस पर मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। देता भी कैसे, मुझे तो मूर्ख बनाने की कला जो सिखनी थी। अब दादा भाऊ ने मेरी तरफ मुखातिब होते हुए कहा ‘बैठो संतोष, तुम्‍हारी तबीयत तो ठीक है न,’ मैंने कहा ‘दादा भाऊ , तबीयत को मारो गोली, मुझे तो मूर्ख बनाने की कला सिखाओ।‘ दादा भाऊ ठहरे मजे हुए खिलाड़ी उन्‍होंने बहानेबाजी शुरू कर दी ’अरे यार, फाइनेन्‍सीयल ईयर का एन्‍ड है, बहुत काम है। बाद में आना।’ मैं टस से मस नहीं हुआ। 

मेरे कैयकी हठ के आगे दादा भाऊ को आखिर हथियार डालना ही पड़ा। उन्‍होंने बोलना शुरू किया ‘किसी को भी मूर्ख बनाने के कुछ बेसिक फार्मुले हैं इनका पालन करना पड़ता है जैसे हमेशा कांफिडेंड रहो, कपड़े टका-टक पहनों, जेब में सवा रूपए हो न हो पर, बात लाखों के नीचे की न कहो। पर कुछ विशेष परिस्थितियों में इसके अपवाद भी होते हैं। ऊपर की बाते तो मैं समझ चुका था पर अपवाद वाली बात को मैं समझ नहीं सका था। समझता भी कैसे, मैं इस मामले में निरा अनपढ़ था। मैंने कहा, ‘’दादा भाऊ, कुछ उदाहरण दे सकें तो अच्‍छा होगा। आखिर मैं ठहरा नौसिखिया।’’ 

दादा भाऊ ने कहा तो ठीक है, सुनो,- एक दिन मैंने कैसे एक टी.सी. को मूर्ख बनाया। मैं पूर्ण तल्लिनता से उन्‍हें सुनने में लग गया। उन्‍होंने कहा, ‘मेरा रिकार्ड है कि मैंने ट्रेन में कभी भी टिकट लेकर ट्रेवल नहीं किया और फस्‍ट क्‍लास की बोगी से नीचे में ट्रैवलिंग नहीं की।‘ अपने रिकार्ड के अनुरूप मैं एक दिन अम्‍बरनाथ से सी.एस.टी. (मुम्‍बई) फस्‍ट क्‍लास में ट्रैवल कर रहा था। थाणे स्‍टेशन तक आराम से पहुँच गया तभी मेरी नज़र टी.सी. तथा रे.सु.बल के जवानों पर पड़ी । वे बारी-बारी से सभी यात्रियों के टिकट की पड़ताल कर रहे थे। इस दौरान उन्‍होंने मेरे बगल में बैठे व्‍यक्ति से टिकट मॉंगा। वह व्‍यक्ति उठा और अपनी पतलून की जेब टिकट निकालकर आगे बढ़ा दिया । 

टिकट देखते ही टी.सी. के चहरे पर ऐसी मुस्‍कान आयी की जैसे उसने वर्ल्‍ड कप जीत लिया हो। उसने तपाक से कहा, ‘’भाई साहब यह सेकण्‍ड क्‍लास का टिकट है और आप फस्‍ट क्‍लास में ट्रेवल कर रहे हो। चलो, 800 रू. फाइन निकालो। युवक फाइन देने में असमर्थता जताने लगा। बोलने लगा, ‘’साहब, गलती से चढ़ गया, पैसा नहीं है।‘’ इतना सुनना था कि टी.सी. भड़क ऊठा, उसे जलील करने लगा और रे.सु.बल के जवानों ने भी उसके विरूद्ध मोर्चा खोल दिया। मैं समझ चुका था कि अब अगली बारी मेरी थी। इस दौरान टी.सी. ने उसे मारने के लिए हाथ भी ऊठा दिया।

इसे देख मैं समझ गया कि मेरी हालत इससे अच्‍छी नहीं हो सकेगी। इससे पहले कि टी.सी. मुझ तक आते मैं पूरे कांफिडेंस के साथ खड़ा हुआ और जोर से बोल पड़ा, ‘ओ.के. मिस्‍टर, स्‍टॉप दिस नॉनसेन्‍स। हाउ मच इज यॉर फाइन, टेक इट फ्राम मी।’ ऐसा सुनना था कि टी.सी. और रे.सु.बल के जवान शांत हो गए। अब टी.सी. ने अदब के साथ मुझसे कहा , ‘सर’ 800/- रूपीज़ प्‍लीज़। मैंने तुरन्‍त जेब से हजार रूपये का करारा नोट निकालकर टिका दिया। टी.सी. ने अदब से फाइन की पर्ची काट कर उस व्‍यक्ति को पकड़ा दिया और बाकी बचे 200/- रूपये मुझे दे दिया। मेरी इस दरियादिली को देखकर सहयात्री मुझे हीरो की भॉंति सम्‍मान तथा उस युवक को तिरस्‍कार की नजरों से देखने लगे। अमूमन फस्‍ट क्‍लास के यात्री आपस में कम ही बात करते हैं पर मेरी दानवीरता के कृत्‍य के बाद मुझसे बात करने की लोगों में होड़ लग गई।

इस बीच मुलुंड स्‍टेशन आते ही टी.सी. और रेल सुरक्षा बल के जवान उतर गए। अब वह युवक जिसका मैंने फाइन भरा था मुझसे कहने लगा, थैंक्‍स, सर, मैं तो आपको जानता भी नहीं फिर आपने मेरा फाइन भर दिया, आपका बहुत-बहुत धन्‍यवाद। मैंने कुछ जवाब नहीं दिया। 

इस बीच और लोग भी मेरी प्रशंसा करने लगे। वह युवक फिर मुझे धन्‍यवाद देने लगा। अब मुझसे रहा नहीं गया। मैंने जोर से कहा, ‘साले, तेरा फाइन नहीं भरता तो मुझे वह लोग पकड़ नहीं लेते। तेरे पास तो सेकंड क्‍लास का टिकट था, मेरे पास तो वह भी नहीं है।‘ 

अब तो पाठकगण समझ ही गए होंगे कि मूर्ख बनाना....................... । 

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