न रंगा सियार बने, न मेढक बने, अनुवादक बने !
भारत सरकार 1950 से केन्द्र सरकारी उपक्रमों, उद्यमों, बैंकों कारखानों व विविध यूनिटों में राजभाषा प्रचार-प्रसार हेतु करोड़ों रूपए व्यय करती रही है पर परिणाम आशानुकूल नहीं रहे हैं। इनके कारणों की मीमांसा करने पर मुझे दो कहानियॉं याद आ गईं।
जी हॉं, रंगा सियार और मेढक की कहानी।
एक घना जंगल था जिसमें बहुत सारे जंगली जीव रहते थे। वैसे तो इस जंगल में सभी प्रकार के वन्य जीव रहते थे किन्तु सियारों की बहुतायत थी। चुँकि उसमें बहुत सारे जंगली जीव रहते थे इस लिए वह शिकारियों का शिकार करने का प्रिय स्थल था। एक दिन जंगल में शिकारियों का एक दल आया । वे अपने साथ शिकार के आवश्यक विविध उपकरण भी लाए जिसमें एक ड्रम भी था। उस ड्रम में नील लगी हुई थी। शिकारियों ने शिकार किया तथा शाम को लौट गए किन्तु ड्रम वहीं छोड़ गए। शिकारियों के जाने के बाद वन्य जीवों ने राहत की सांस ली और अपने साथियों की सलामती जानने को जंगल में निकल पड़े। ऐसे में सियारों का दल भी जंगल में निकल पड़ा, अपने साथियों की सलामती जानने के लिए नहीं वरन शिकारियों द्वारा मारे गए जीवों के छोड़ दिए गए अवशेषों का सफाचट करने के लिए।
अंतत: दल ने तलाब के किनारे मृत नीलगाय के अवशेष को खोज लिया। अब उसे खाने के लिए सब सियारों में होड़ लग गई। इस अफरातफरी के माहौल में एक सियार शिकारियों द्वारा छोड़े गए ड्रम में जा गिरा जिससे उसके पूरे शरीर में नील लग गई। किसी तरह प्रयास कर वह ‘रंगा सियार’ ड्रम से निकलने सफल हुआ । उसे देखते ही सभी सियार पहले तो घबरा गए। उधर रंगा सियार दर्द के मारे कुछ बोल नहीं पा रहा था। उसके रंगे शरीर को देखकर अन्य सभी सियार उसे दिव्य शक्ति से अलंकृत मानने लगे तथा उसकी सेवा में लग गए और उसे भोजन व अन्य आवश्यक वस्तु उपहार में देने लगे। रंगा सियार के दिन फिर गए, अब वह शांत मुद्रा में अपने आवास के आगे बेठने लगा। वह मन ही मन प्रसन्न था कि उसे अब उसके अन्य साथियों की भॉंति भोजन की तलाश में भटकना नहीं पड़ता। इस तरह कुछ दिन निकल गए, इस बीच पूर्णिमा आ गई । रात को गोल चॉंद को देखते ही सभी सियारों में हुँऽआऽऽ, हुँऽआऽऽ करने की होड़ लग गई। इन आवाजों को सुनते ही रंगे सियार में भी ऐसी आवाज निकालने की प्रबल इच्छा हुई पर उसने कुछ हद तक तो अपने पर नियत्रण बनाये रखा क्योंकि वह समझ चुका था कि जैसे ही वह सियारों जैसी आवाज निकालेगा तो अन्य सियार उसे पहचान जाएंगे तथा उसे प्राप्त मान-सम्मान, उपहार सब कुछ समाप्त हो जाएगा। उसे भोजन के लिए जंगल में दिनों-दिन भटकना पड़ेगा। और हुआ भी वही जैसे ही उसने उनके साथियों की भॉंति आवाज निकालना आरंभ किया । सभी सियार उसे पहचान गए और रंगे सियार को प्राप्त सभी सुविधाएं समाप्त हो गईं।
कहने का तात्पर्य यह है कि आज शासकीय संस्थानों में बहुत सारे हिन्दी अधिकारी, सहायक निदेशक/ राजभाषा तथा राजभाषा प्रबंधक स्वयं को अपने कैडर के अन्य राजभाषा कर्मियों से बहुत अलग समझने लगे हैं, जबकि वास्तव में चाहे हिन्दी अधिकारी, सहायक निदेशक/राजभाषा , राजभाषा प्रबंधक, अनुवादक हो या राजभाषा सहायक सभी पर राजभाषा कार्यान्वयन का दायित्व एक समान हैं। किंतु वर्तमान में बहुत सारे हिन्दी अधिकारी, सहायक निदेशक/ राजभाषा तथा राजभाषा प्रबंधकों का व्यवहार रंगे सियार की भॉंति हो गया है।
अत्यन्त दु:ख के साथ यह लिखना पड़ रहा है कि आज जब मानव जगत चॉंद से आगे निकल कर ‘’मंगल’’ गृह की ओर बढ़ रहा है वहीं राजभाषा कार्यान्वयन के क्षेत्र में हिन्दी अधिकारी, सहायक निदेशक/ राजभाषा तथा राजभाषा प्रबंधकों की भूमिका मात्र अनुवादकों द्वारा किए गए अनुवाद की वेटिंग तथा कुछ सेमिनार कराने तक ही सिमट गई है।
क्यों नहीं हम आई.टी. क्षेत्र में हुए क्रॉंतिकारी परिवर्तनों का लाभ उठाते ? क्यों नहीं हम क्लर्क की मानसिकता से ऊपर उठ कर काम करें ? वर्तमान कई हिन्दी अधिकारी, सहायक निदेशक/ राजभाषा तथा राजभाषा प्रबंधकों को एक नई भूमिका ‘’प्रशासनिक अधिकारी’’ दी गई है। सर्वविदित है कि प्रशासनिक अधिकारी के असंख्य दायित्वों के साथ-साथ असंख्य अधिकार भी होते हैं। जिन्हें वह कार्यालय तथा कार्मिक हित में प्रयोग करता है। परन्तु यह देखने में आया है कि नई भूमिका में हमारे अधिकांश हिन्दी अधिकारी, सहायक निदेशक/ राजभाषा तथा राजभाषा प्रबंधक अनुवादकों पर ही अपने अधिकारों का प्रयोग कर अपने खंडित अहं को संतुष्ट कर रहे हैं।
ऐसा करके वे त्वरित प्रभाव के रूप अनुवादक को हतोत्साहित कर अपने अहम को संतुष्टि करने में सफल अवश्य हो जाते हैं परन्तु इसका दीर्घकालिक दुष्परिणाम पूरे संगठन के राजभाषा क्रियान्वयन पर पड़ता है।
अब आते दूसरी कहानी पर । एक छोटे से पोखर में एक मेढ़क रहता था । वह दिन भर पोखर में बिना किसी परेशानी के विचरण करता । छोटे-छोटे जीवों का भक्षण करता और आराम से टर्र-टर्र की आवाज निकाल कर दिन व्यतीत करता। चूँकि उस पोखर में कोई सर्प या उससे बड़ा अथवा उसका भक्षण कर सकने वाला अन्य जीव नहीं रहता था इसलिए उसकी दिनचर्या मजे में कट रही थी। ऐसे में वह अपने को दुनिया का बादशाह तथा पोखर को दुनिया ही समझने लगा। समय के साथ सावन का आगमन हुआ और इंद्र देव की कृपा हुई । अतिवृष्टि होने लगी पाखर लबालब भर गया, आसपास के गॉंव जलमग्न हो गए। ऐसे में बाढ़ के कारण न चाहते हुए भी मेढक पानी की धारा के साथ पोखर से निकल कर नदी से होता हुआ समुद्र में आ मिला । यहॉं समुद्र के विशाल जीव-जन्तुओं को देखकर उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। यहॉं वह भोजन के लिए जब भी ऑखें खोलता तो उसे उससे बड़े व भयावह विचित्र जीव ही दिखाई पड़ते। ऐसी स्थिति में वह कमजोर होता गया और अंतत: एक दिन काल के गाल में समा गया ।
कहने का तात्पर्य यह है कि आज शासकीय संस्थानों में बहुत सारे हिन्दी अनुवादक, राजभाषा सहायक अपने वहीं पुराने कार्यविधि से संतुष्ट हैं तथा नविन परिवर्तनों को आत्मसात करने के प्रति उदासीन बने हुए हैं। स्वयं को अनुवादक की भूमिका में कम, लिपिक की भूमिका में अधिक सहज पाते हैं। माह के अंत में वेतन तो मिल ही जाएगा इस सोच से हमें ऊपर ऊठ कर कार्य करना होगा।
अब अनुवादकों को अनुवादक की भूमिका के साथ ही प्रशिक्षक की भूमिका में आना होगा। मात्र अनुवाद करके देने की अपेक्षा अब अपने सहकर्मियों को अनुवाद व हिन्दी युनिकोड टंकण के गुर सीखने में समय लगाना होगा। इसके साथ ही हमें हार्ड वर्कर के स्थान पर स्मार्ट वर्कर बनाना होगा और अनूदित समस्त डेटा को त्वरित संदर्भ हेतु इलेक्ट्रॉनिक फार्म में सुरक्षित रखना होगा अर्थात अनूदित सामग्रियों का डेटाबेस तैयार करना होगा जिससे समान रूप के प्रपत्रों को अनुवाद करने में हमें अधिक श्रम व समय का प्रयोग न करना पड़े और हमारी अनुपस्थिति में अन्य कार्मिक भी सहजता से अनुवाद करने में सफल हो पाएं।
यह सर्व विदित है कि आज के युवा मात्र एम.ए. की डिग्री के साथ ही शासकीय सेवा में अनुवादक के रूप में नहीं आते हैं बल्कि राजभाषा प्रचार-प्रसार में उपयोगी विविध सॉफ्टवेयर के में कार्य करने की दक्षता भी है। हमें स्वैच्छा से अपने इन्हीं ज्ञान व ऊर्जा का प्रयोग शासकीय कार्यालयों के वेबसाइट के द्विभाषीकरण, ऑन-लाइन हिन्दी शब्दकोश, द्विभाषी ऑन-लाइन प्रशिक्षण सामग्री तैयार करने में लगानी होगी।
प्राय: अनुवादकों व राजभाषा कर्मियों की यह शिकायत रहती है कि आई.टी. विभाग उनके सहयोग हेतु उदासीन रवैय्या रखता है पर अनुवादकगण स्वत: से यह प्रश्न करें कि यदि वह इंटरनेट का उपयोग जानता है तो क्यों नहीं वे यूनिकोड फान्ट का उपयोग करता है ?, क्यों वह वेबपेज डिजाइनिंग नहीं सीखता ? क्यों वह एम.एस. वर्ड की भॉंति ही एम.एस. फ्रन्टपेज में कार्य नहीं करता ? हमें सदैव स्मरण में रखना होगा कि यदि हम पहल करेंगे तो लोग भी हमारे साथ जुड़ेंगे। पहल ही नहीं होगा तो जुड़ने का प्रश्न ही नहीं आएगा।
10 वर्ष अनुवादक के रूप में कार्य करने के पश्चात मैं यह जान गया हूँ कि हम अपनी क्षमता से बहुत कम कार्य कर पाएं हैं, जो कि चोरी करने के समान ही है। कार्यालय समय में ही हमारे पास बहुत कुछ सीखने के पर्याप्त अवसर व समय होता है। हम सभी राजभाषा कर्मी कार्यालय समय में सूचना प्रौद्योगिकी का हिन्दी में प्रशिक्षण ग्रहण करें। पुस्तक खरीद योजना के अन्तर्गत सूचना प्रौद्योगिकी की हिन्दी में उपलब्ध पुस्तकें खरीदें व उसका अनुसरण करके वेबपेज डिजाइनिंग सीखें।
हिन्दी अधिकारी, सहायक निदेशक/राजभाषा, राजभाषा प्रबंधक, अनुवादक या राजभाषा सहायक हमें आपसी मन-मुटाव दूर रखकर राजभाषा कार्यान्वयन के मिशन में लगना होगा। एक–दूसरे को नीचा दिखाने से राजभाषा कैडर की छवि तो खराब होगी ही इसके साथ ही आम कार्मिकों में यह संदेश जाएगा कि इनक पास कोई काम ही नहीं है। राजभाषा संबंधी दोनों ही वर्ग के पदों पर बने लोगों को ध्यान में रखना होगा कि जब हम दूसरे का सम्मान करते है तो ही हमें सम्मान मिलता है।
इस लेख के माध्यम से मैंने किसी कैडर विशेष पर आक्षेप नहीं लगाया है । बस 10 वर्ष के अनुभवों तथा राजभाषा कार्यान्वयन के मार्ग की बाधाओं की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का तुच्छ प्रयास मात्र किया है।
अतंत: पुन: कहुँगा कि न रंगा सियार बने, न मेढक बने, अनुवादक बने !
संतोष जी स्थिति इतनी भी बुरी नहीं है। पर हां अगर ऐसा है तो इससे जुड़े लोगों को इसके समाधान के लिए आगे आना होगा। बहुत अच्छी प्रस्तुति। दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई! राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है!
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी पर – कविता में बिम्ब!