इन रोम डू ऐज रोमन डू
बात उन दिनों की है जब मैं एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर मैं मुम्बई विश्वविद्यालय के गरवारे इन्स्ट्टियूट में पत्रकारिता एवं जनसंचार का एक वर्षीय पी.जी डिप्लोमा कर रहा था। इस दौरान मैंने आयुध निर्माणी संगठन के मशीनी औजार आदिरूप निर्माणी, अम्बरनाथ में कनिष्ठ हिन्दी अनुवादक पद के लिए परीक्षा दी थी। चँकि मैं लिखित परीक्षा उत्तीर्ण हो गया था तथा मेरा साक्षात्कार भी बहुत अच्छा रहा था अत: मैं अपनी सफलता के प्रति बहुत ही आशान्वित था ।
हर दिन मैं नई उम्मीद के साथ सवेरे जागता और मन ही मन चयन पत्र पाने की काम ना करता। इस दौरान मैं नियमित रूप से पत्रकारि ता के क्लास में उपस्थित होता रहा। इसके लिए मुझे अप.04:00 बजे अम्बरनाथ से कुर्ला के लिए निकलना पड़ता था और गरवारे इन्स्ट्टियूट में शाम 06:00 बजे से रात 08:30 बजे तक कक्षा अटेंड पड़ता था। अम्बरनाथ से कुर्ला स्टेशन तक की लोकल यात्रा जितनी आरमदायक थी, वहीं कुर्ला से अम्बरनाथ तक की वापसी यात्रा उतनी ही कष्टदायी होती थीं क्योंकि मुम्बई में काम करने वाले अधिकांश लोग उपनगरों में रहते हैं तथा अल सवरे ही लोकल से मुम्बई अपनी रोजी-रोटी के जुगाड़ में निकल जाते हैं तथा शाम 05:00 बजे से लोगों का हुजुम लोकल ट्रेनों से उपनगर स्थित अपने घरों की और लौटता है। ऐसे में कुर्ला स्टेशन में रात 09:00 बजे लोकल ट्रेन में बैठने के लिए जगह पाना तो दूर घुस पाना भी जंग जीतने की तरह था।
बहरहाल किसी तरह मैंने अपने आप को परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लिया और नियमित रूप से कक्षाएं अटेन्ड करने लगा । इसी दौरान एक दिन शाम को चिरप्रतीक्षित समाचार प्राप्त हुआ । यह समाचार था आयु ध निर्माणी में मेरी नियुक्ति का । लगभग 15 दिनों में चरित्र सत्यापन तथा मेडिकल परीक्षण संबंधी औपचारिकताएं पूर्ण होने के उपरान्त मैं शासकीय सेवा में आ गया।
इसी तरह एक दिन मैं क्लास अटेन्ड कर कुर्ला स्टेशन पर अम्बरनाथ लोकल ट्रेन आने का इंतजार कर रहा था। इस बीच मैंने स्टेशन पर सफेद कुर्ता–पयजामा पहने लगभग 40 वर्षीय नेत्र हीन व्यक्ति को देखा जो डंडा पकड़े हुए प्लेटफार्म पर मुझसे कुछ फासले पर खड़ा था। उसके बाल करीने से कटे हुए थे तथा वह किसी अच्छे घर का व्यक्ति जान पड़ता था। यात्रियों की भी ड़ बिना उसकी परवाह किए हुए उसके अगल-बगल से बड़ी तेजी से निकल रही थी। इससे उसे चोट लगने की प्रबल सम्भावना थी। उसकी स्थिति पर मुझे दया भी आ रही थी पर इसके पहले मैं उसके लिए मैं कुछ कर पाता की अम्बरनाथ के लिए लोकल ट्रेन आ गई । मैं बिना समय गवाए ट्रेन के रूकने से पहले ही उसके साथ भागते हुए एक कम्पार्टमेन्ट में चढ़ गया और भी ड़ के बावजूद सीट पर कब्जा जमाने में काम याब रहा । मैंने देखा की बहुत सारे लोग अब भी ट्रेन में चढ़ने की कोशिश कर रहे थे, पर उनसे मुझे क्या ! मैं तो सीट पा गया था । यह फास्ट ट्रेन थी इसलिए कुछ सीमित स्टेशनों पर ही रूकती थी। कुछ देर में ट्रेन चल पड़ी सभी लोग जैसे -तैसे अपने को टिकाने का प्रयास कर रहे थे इस बीच मुझे वहीं कुर्ता–पयजामा वाला नेत्रहीन व्यक्ति भीड़ में अपनी जगह बनाने के प्रयास में कसमसाता हुआ दिखाई दिया । मुझे लोगों के साथ-साथ अपने पर भी क्रोध आया कि एक नेत्रहीन व्यक्ति की तकलीफों की लोग किस तरह उपेक्षा कर रहे हैं और मैं कैसे यह सब बैठे-बैठे देख रहा हूँ। आखिर हमें स्कूल, परिवार तथा समाज से कुछ सीख तो मिली है ! समाज के कमजोर वर्गों एवं उपेक्षित व अपंग लोगों के प्रति हमारी कुछ तो जिम्मेदारी होनी चाहिए। यह सोचते हुए मैं अपनी सीट से ऊठा और उसे आवा ज दी ''अरे, यार। यहॉं आओ, मेरी सीट पर बैठ जाओ।'' मेरे अगल-बगल बैठे सज्जनों में कुछ लोग मुझे ऐसा करते देख मुस्कराने लगे तथा कुछ लोग पहले की भॉंति ऑंखें मुंदे बैठे रहे जैसे कि यदि उन्होंने ऑंखें खोली तो कोई उन्हें उनकी सीट से ऊठा देगा। कुछ लोग प्रशंसा से मेरी ओर देखने लगे। मैं उन लागों के बीच में एक मात्र दानवीर कर्ण बना रहा। इसका परिणाम यह रहा कि ''मुलंड'' स्टेशन पर कई लोगों ने स्वयं खड़े होकर मुझे बैठने के लिए अपनी सीट देने की पेशकश की, पर मुझे तो उस दिन दानवीर कर्ण और शक्तिमान बनने का भूत सवार था इसलिए मैंने विनम्र ता पूर्वक उनके प्रस्ताव को टाल दिया।
इस बीच मुम्बई उपनगर का पहला स्टेशन ‘’थाणे’’ आ गया । लोगों का हुजुम ट्रेन से उतरा और चढ़ा पर अब ट्रेन में पहले की अपेक्षा भी ड़ कुछ कम हई । मुझे बैठने के लिए आराम दायक तो नहीं पर ठीक-ठाक सीट मिल गई, लोग भी फैल–फैल कर बैठ गए, अब ट्रेन सीधे 35 मिनट बाद एक अगले स्टेशन ‘’डोम्बिवली’’ पर रूकने वाली थी ।
हम सभी जानते है जब तक हम व्यक्तिगत रूप से किसी व्यक्ति विशेष को नहीं जानते तब तक उसके प्रति हमारा नजरिया बहुत कुछ उसके बाहरी रंग -रूप या यों कहे दिखावट पर निर्भर कर ता है। शायद यही कारण था कि कॉलेज के दौरान पूर्ण ईमानदारी से रेल पास निकाल कर अम्बरनाथ से उल्हासनगर तक ट्रेन यात्रा करने पर भी प्राय: हर सप्ताह टिकट चेक र मेरा ही पास चेक करता और वहीं मेरे गोर-चिट्टे, सुडौल चेहरे वाले मित्र जिन्होंने कॉलेज के दौरान शायद ही कभी रेलवे पास अथवा टिकट निकाला हो को, किसी टिकट चेकर ने टिकट पुछा । कहने का तात्पर्य यह है कि कि मैं स्वयं को रंग-रूप में ''बिलो-ऐवरेज'' मानता हूँ क्योंकि आज से 10 वर्ष पहले मैं काफी दूबला–पतला, गहरे काले रंग वाला अनाकर्षक युवक लगता था और बिना शेविंग के तो मैं चरसी या छटा हुआ गुंडा ही दिखाई देता था।
ट्रेन अब भी चल रही थी, अगले स्टेशन ‘’डोम्बिवली’’ के आने में अभी 20 मिनट का समय था। सभी लोग आराम से अपने सीट पर टिके हुए थे कि यकाय क कुर्ता–पयजामा वाला नेत्र हीन युवक अपने सीट से ऊठा और कम्पार्टमेंट के आखिरी छोर पर सहजता से चला गया, मेरी नज़रें उस पर जम गई थी। मैं देखना चाहता था वह चलती ट्रेन में क्या करना चाहता है। मैंने देखा कि उसने अपने कुर्तें की जेब में हाथ डाला और एक छोटी कटोरी निकाल ने के साथ ही बेसुरा हिन्दी फिल्मी गीत गाते हुए लोगों से भीख माँगने लगा। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता वह भीख मॉंगते-मॉंगते हुए मेरी सीट के पास पहुँच गया।
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