(नोट :- प्रस्तुत लेख मेरे द्वारा नहीं लिखा गया है यह एक कार्यालय की वार्षिक राजभाषा पत्रिका में छपी हुई थी। इसके लेखक श्री प्रेमनारायण शुक्ल जी हैं। मैं सामान्यत: पत्रिका में प्रकाशित लेखों को अपने ब्लॉग में कभी-कभार ही प्रकाशित करता हूँ। प्रस्तुत लेख भी उसकी एक कड़ी है । इस लेख को पढ़ने के पश्चात मुझे यह महसूस हुआ कि यदि इसे ब्लॉग में नहीं प्रकाशित किया गया तो यह पाठकों के साथ-साथ हमारे भावी पीढ़ी के लिए भी अन्याय करने जैसा ही होगा इसलिए इस लेख को उसके लेखक के नाम से ही प्रकाशित कर रहा हूँ।)
ऐतिहासिक प्रतीक बदल गए ?
अंग्रेजी तथा अंग्रेजियत के
प्रति हमारा अगाध मोह किस प्रकार प्रगति के नाम पर नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति, भाषा और गौरवशाली इतिहास से दूर कर
रहा है , एइसके उदाहरण हिन्दुस्तान
में समय-समय पर मिलते रहे हैं और प्रभावकारी परिवर्तन दिखाई पड़े तो आश्चर्य की
बात नहीं होनी चाहिए। एक राष्ट्रवादी कवि, जो राजनीतिक वातावरण में व्याप्त प्रदूषण से खासे परेशान8 थे,ख् अपनी व्यथा को क्रांतिकारी कलम के
जरिए कभी-कभी बाहर प्रकट कर ही देते थे।
यह घटना कुछ वर्षों पूर्व की
ही है, शादी के लिए कन्या देखने एक
परिवार घर आया हुआ था। परिवार में लड़का, उसके माता-पिता, भाई-भाभी
तथा छोटे-छोटे बच्चे आए थे। अर्थात भारी भरकम दलबल सहित पधारे थे।
घर में कमरे की दीवारों पर
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तथा राष्ट्रीय नेताओं के चित्र लगे थे। उनमें महात्मा गॉंधी, प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, छत्रपति शिवाजी, स्वामी विवेकानंद आदि महान विभूतियों के
चित्र थे।
कवि तथा स्वतंत्रता संग्राम
सेनानी ने बच्चों को प्यार से बुलाया तथा बड़े प्रेम से उनका नाम पूछा, फिर महाम्ता गॉंधीजी की ओर इशारा करके
पूछा ‘ बेटा बताओं ये कौन है? बच्चों
ने मुँह बिगाड़कर अटपटा सा जवाब दिया, ‘से तो कोई गरीब फकीर दिखता है। लेकिन इसके फोटो को यहॉं पर इतने ऊपर
क्यों लगा रखा है ?’
कमरे का वातावरण अचानक गंभीर
हो गया । बच्चों के माता-पिता, दादा-दादी
को मानो सॉंप सूँघ गया हो। स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्रवादी कवि इस उत्तर को सुनकर खामोश हो गए। फिर कवि जी
वातावरण सामान्य बनाने के लिए बोले, हॉं बेटा ये पागल फकीर ही था जिसने हमें आजाद देश और आजादी की स्वच्छ
सॉंस दिलवाई है।
अभी वातावरण सामान्य हो ही
रहा था कि एक बच्चे ने डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन की तस्वीर देखकर बोला-‘इस पागल ने अपने सिर को एक्सीडेंट से बचाने के लिए हेल्मेट के बजाए
पता नहीं सिर पर क्या बॉंध रखा है ?’ और फिर घोड़े पर सवार छत्रपति शिवाजी तथा पं. जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर
देखकर बोला,‘इनको तो कभी चौराहे पर या कही पार्क पर भी देखता हूँ पर नाम कुछ याद
नहीं।’
लड़के के दादा-दादी, माता-पिता सफाई देने लगे कि बच्चे
इंटरनेशनल कान्वेंट में पढ़ते हैं इसलिए उन्हें इन सबकी जानकारी नहीं है।
तनावपूर्ण वातावरण में कन्या देखने का सारा कार्यक्रम संपन्न हुआ और लोग चले गए।
प्रश्न यह है कि क्या हमारी ऐतिहासिक धरोहर और राष्ट्रवादिता अब आउटडेटेड हो
गयी है ? नई पीढ़ी को कोन् सा परिवेश देंगे
? क्या राष्ट्रीय अस्मिता की
मृत्यु हो गयी?
यह इन्फोसिस से संबंधित
श्रीमति सुधा मूर्तिजी का लेख है। उन्हें अपने काम से प्रवास करना पड़ता है।
ग्रामीण क्षेत्रों के विकास आदि से समय नहीं बचता। एक शिक्षिका के नाते वे
छोटी-छोटी घटनाओं का स्मरण रखती हैं। आज नई पीढ़ी कहॉं जा रही है ? इनुमान इससे लगता है कि भोपाल में
ओजस्विनी पुरस्कार में उन्हं घोड़े पर सवार झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की हाथ
में तलवार लिए नितांत सुंदर प्रतिमा प्राप्त हुई। इस पुरस्कार को अपने ही साथ
रखने के लिए विमान कमिर्यों से अनुमति प्राप्त कर वो अपनी सीट पर जा बैठीं।
मूर्ति गोद में लिए बैठने में असुविधा हो रही थी और पुरस्कार में प्राप्त मूर्ति
नीचे रखने में अपमान होने की समस्या थी। अत: सुधाजी मूर्ति को नीचे रखने की सोच
भी नहीं सकती थी।
एक एयर होस्टेस के ध्यान में
यह बात आ गयी, उसने वह ‘पुरस्कार’ लेकर एक्जीक्यूटिव क्लास के
एक खाली सीट पर ससम्मान ठीक से रख दिया। विमान प्रवासी प्राय: आपस में बातचीत
नहीं करते । इस प्रवास में सुधा मूर्ति जी के पास ही एक युवक-युवती जो कि चचेरे
भाई-बहन थे, बैठे थे तथा दिल्ली में अपने
दादा-दादी से मिलकर लौट रहे थे। उनमें से युवती ने पूछा- ‘मैडम बढिया खुबसुरत खिलौना है, क्या ऐसे खिलौने बैंगलोर में नहीं मिलते ? आप इसे संभाल नहीं पा रही थी और नीचे रखने
को भी तैयार नहीं थी।’ सुधा जी ने बताया, ‘यह खिलौना नहीं, यह
तो मुझे मिला पुरस्कार है।’ अब युवक ने मुँह खोला-‘उसने कहा, ‘लगता है आपको घुड़सवारी, तलवारबाजी का खूब शौक है। यह क्या किसी
रेसकोर्स का घोड़ा है?’
सुधा जी को बात मन में चुभ गई।
उन्होंने कहा, आप उसे खूब ध्यान से देख आइए।
फिर बताइये, आपको क्या लगता है। ‘हमने उसे देखा है इसलिए तो पूछ
रहे हैं।’ उत्तर सुनकर सुधाजी का हृदय टूट गया, गहरा धक्का लगा। एक शिक्षिका का कर्तव्य बोध याद करके, प्रतिमा किसकी है समझाना आवश्यक समझा और
युवक-युवती से पूछा, ‘आपने प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम के बारे में सुना है।’
उत्तर मिला- ‘हॉं-हॉं, 1942 में जो हुआ था न। उसे पढ़ा है, उस पर बनी फिलम भी देखी है, उसका नाम था – ‘1942 ए लव स्टोरी’। उसमें ब्रिटिश लोगों के साथ लड़ाई भी होती है और मनीषा कोईराला
कितनी सुंदर लग रही थी।’
सुधा जी ने अपना माथा पकड़ा और
भूत की कुर्बानियों और भविष्य के खतरों के विषय में सोचती रहीं। उन्होंने फिर
1942 से 100 वर्ष पूर्व ब्रिटिश शासन की क्रूरता के वातावरण को समझाते हुए झॉंसी
की रानी की प्रतिमा के विषय में विस्तार से समझाया। वे दोनों उनकी बातों को ध्यानपूर्वक
सुनते रहे। देश को आजादी मिले 63 वर्ष गुजर गए हैं और हमारी युवा पीढ़ी इस
बेशकिमती ऐतिहासिक सच्चाई से कितनी जल्दी अपरिचित होती जा रही है। उसे इसका आभास
तक नहीं है, यह तथ्य एक बार पुन: प्रकट
हुआ। अपने ऐतिहासिक विरासत और गौरवमय इतिहास का स्मरण कराने के लिए आगे बढ़ने
वालों की देश में कमी नहीं है। क्या अब कुछ गिने –चुने अवसर रह गए हैं जब अपनी
राष्ट्रीयता, ऐतिहासिक धरोहर की यदा-कदा याद
करके, उपकार कर दिया जाए। यह सब कब
और कैसे होगा, राष्ट्रीय प्रतीक, धरोहर आदि भविष्य में विलुप्त तो नहीं
हो जाएंगे अथवा क्या हमारे प्रतिमान भी आयातीत किए जाएंगे। आशा है इस यक्ष प्रश्न
का उत्तर मिल सकेगा।
!!जय हिन्द!! जय भारत!!
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