क्या अब भी रक्तदान करने का कारण किसी को समझाना पड़ेगा ........?
आज मेरी निर्माणी के अस्पताल में रक्तदान का कार्यक्रम
प्रायोजित किया गया है। हम सभी इसके महत्ता से परिचित हैं। मानव ने
चिकित्सा विज्ञान में खूब प्रगति कर ली है हृदय, गुर्दा प्रत्यारोपण अब
तो आम बात हो गई है। अब तो कृत्रिम हृदय भी सफलतापूर्वक तैयार कर मानव शरीर
में स्थापित कर लिया गया है किन्तु विचारणीय तथ्य यह है कि उपरोक्त
तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद भी अभी तक हम रक्त का विकल्प नहीं
बना पाए हैं।
खेल-खेल
में अपने बच्चे को लगी खरोच से निकलते खून को देख तुरन्त डॉक्टर के पास
ऐसे दौड़ते हैं कि दुनियॉं के हम पहले व एकमात्र अभिभावक हैं। हम सभी
अनभिज्ञ नहीं हैं कि प्रतिवर्ष कई हजारों लोग दुर्घटना का शिकार होकर रक्त
के आभाव में काल के मुँह में समा जाते हैं। इसके अतिरिक्त थैलिसिमिया से
पीडित बच्चों की पीड़ा से क्या हम सभी वाकिफ नहीं हैं ? वैसे तो रक्तदान
पूरी तरह स्वैच्छिक होता है तथा रक्तदान करना बंधनकारी नहीं होता है फिर
भी सरकार इसे जनहित में प्रोत्साहित करते हुए रक्तदाता को कुछ सुविधाएं
प्रदान करती है। कॉलेज के दिनों में तथा एन.सी.सी. प्रशिक्षण के दौरान इनका
मैं पहले भी उपभोग कर चुका हूँ। उन दिनों रक्तदान करने से अधिक उससे
प्राप्त होने वाली सुविधाओं का मोह ज्यादा था पर अब स्थिति बदल चुकी है।
अब मैं दो प्यारे बच्चों का पिता हूँ। यकीनन उनकी सलामती की सोच ने मुझे
रक्तदान करने के लिए मजबूर कर दिया है। इस दृष्टिकोण से मैं स्वयं को
स्वार्थी पाता हूँ ;
स्वार्थवश ही सही, पर रक्तदान करने जा रहा हूँ। रक्तदान करने से पूर्व
अपने उन सहयोगियों के लिए महाभारतकालिन एक किंवदन्ति का उल्लेख करना चाहता
हूँ जो इस आयोजन के प्रति अनभिज्ञ हैं या जानबुझ कर हो रहे हैं।
प्राचीनकाल में आज की भॉंति नहाने के लिए बाथरूम नहीं होते थे। महिलाएं ब्रह्म मूहर्त में उठकर स्नान
करने के लिए नदी के घाट पर पहुँच जाती थी तथा अजोरा होने से पहले ही
स्नान आदि करके अपने घरों में लौट जाती थी। ऐसे ही ब्रह्म मूहर्त में एक
दिन द्रौपदी अपने दासियों
के साथ स्थान करने घाट की ओर निकलीं । अभी सूर्य देवता का उदय नहीं हुआ
था। मंद-मंद बयार चल रही थी। घाट के समीप पहुँचते ही द्रौपदी की नजर एक
साधु महाराज पर पड़ी जो कटिले झाडियों के झुरमुट में फंसे अपने लंगोट को
निकालने का प्रयास कर रहे थे। लंगोट निकालने की प्रक्रिया में साधु महाराज
ने थोड़ा जोर लगाया किन्तु लंगोट निकलने के बजाय बुरी तरह से फट गया और
पहनने लायक नहीं रहा। अब तक साधु महाराज को महिलाओं के आने का आभास हो गया।
अपनी लाज बचाने के उद्देश्य से साधु महाराज कटिले झाडियों के झुरमुट में
छीपने लगे।
द्रौपदी ने सारा मामला समझ लिया और अपनी आँचल फाड़कर एक स्थान पर रख दिया और एक तरफ हटते हुए कहा, "पिताजी, मैं आपकी स्थिति समझ गई हूँ। कृपया इस वस्त्र को स्वीकार करें।"
इसके बाद द्रौपदी अपनी दासियों के साथ स्नानघाट पर अपनी नियमित क्रिया कर
राजमहल लौट गईं। बात आई-गई हो गई और द्रौपदी ने भी इसके संबंध में किसी से कोई
चर्चा नहीं की।
इस
बीच हस्तिनापुर में कौरवों ने द्युत क्रीड़ा में माहिर अपने कपटी मामा
शकुनी के साथ मिलकर पांडवों को हस्तिनापुर से निकालने का षडयंत्र रचा और
कामयाब भी हुए। पांडवों का सर्वस्व जीत कर भी कौरवों को शांति नहीं हुई
बल्कि उन्होंने सुनियोजित योजना के अन्तर्गत पांडवों को और लज्जित करने
के उद्देश्य से अंतिम दाँव के रूप में द्रौपदी को ही दाँव पर लगाने के लिए
उकसा दिया। परिणाम भी कौरवों के मनानुकूल ही रहा। कौरव अब अपनी नीचता की
सीमा लांघने लगे और दुर्योंधन ने भरी सभा में अपने भ्राता दु:शासन को
द्रौपदी का चीरहरण करने का आदेश दे डाला। पांडव चूँकि द्रौपदी को हार चुके
थे, अत: सर झुकाकर अपमान का घुट पीने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सके। पूरा
दरबार बेबस था। धृतराष्ट अपने पुत्र मोह में इतने अंधे हो गए कि अपनी
पुत्रवधू का अपमान होता देखकर भी कुछ नहीं बोले । पितामह भीष्म, गुरू
द्रोणचार्य, मंत्रिगण व अन्य दरबारी, शासकीय नौकर-चाकर, दास-दासियॉं
राजभक्ति के प्रति बंधे हुए बेबस अनर्थ होता देख रहे थे।
इस
बीच दु:शासन रानीवास से द्रौपदी को उसके केशों से पकड़ कर घसीटता हुआ भरी
सभा में ले आया। द्रौपदी अपनी रक्षा के लिए चिखती- चिल्लाती रही पर उसकी
रक्षा के लिए कोई नहीं आया। आते भी कैसे ? हस्तिनापुर के राजवंश से कौन बैर लेता ? पूरे हस्तिनापुर में हहाकार मच गया ।
द्रौपदी
का क्रंदन सुनकर स्वर्गलोक भी डोल गया। देवता भी बेबस हो गए थे परन्तु
इस अनर्थ से द्रौपदी को बचाने का यत्न करने लगे। देवताओं ने कहा कि ‘’मुनष्य अपने कर्मों का फल पाता है तथा उसके किए हुए पाप और पुण्य उसके साथ रहते हैं।’’
अंतत: चित्रगुप्त को आदेश दिया गया कि वह द्रौपदी के कर्मों का हिसाब
करें। चित्रगुप्त ने वैसा ही किया तथा देवताओं को बताया कि किस तरह बहुत
पहले द्रौपदी ने संकट में फँसे साधू महाराज की लाज अपने ऑंचल को फाड़कर
बचाई थी और वहीं ऑंचल का वस्त्र अब ब्याज के रूप में बढ़कर असंख्य
वस्त्रों का अंबार बन चुका है।
अब क्या था, समस्या का समाधान निकल गया था। कृष्ण भगवान ने इन्हीं वस्त्रों के अम्बारों से द्रौपदी की लाज बचाई।
क्या अब भी रक्तदान करने का कारण किसी को समझाना पड़ेगा ..........?
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