पिता का
पत्र पुत्र के नाम
श्री शैलेंद्र नाथ
अपर महाप्रबंधक
(यह लेख श्री शैलेंद्र नाथ जी
द्वारा लिखित है। यह लेख एक पुत्र से पिता की अपेक्षा तो व्यक्त करता ही है साथ ही
जीवन पय्रन्त पुत्र हेतु मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करता रहेगा। यह लेख
पाठकों पर अपनी अमिट छाप डालता है।)
मेरे प्यारे
बेटे,
हॉं, मैं तुम्हें
अब भी "मेरे प्यारे बेटे" कह कर सम्बोधित कर रहा हूँ यद्यपि अब तुम
किशोर हो चुके हो। ऐसा इसलिए क्योंकि पिता के लिए एक बच्चा बच्चा ही रहता है, इस बात
का ध्यान किए बिना कि वह बच्चा कितना और कितना दूर तक विकसित हो चुका है।
क्योंकि हर इंसान में कहीं न कहीं एक बच्चा
छुपा होता है। पिशेषत: तुममें अभी भी काफी बाल-सुलभ सरलता, निष्कपटता
और गुण बचे हैं, यद्यपि अब तुम उम्र में बड़े हो गए हो। सच पूछा जाए तो मेरी
इच्छा है कि जब तक तुम इस पृथ्वी पर हो, तब तक
ये गुण तुममें विद्यमान रहें।
इसलिए कि आप एक बच्चे से आदमी को निकाल
सकते हैं लेकिन एक आदमी से बच्चा या बचपना नहीं निकाल सकते। इसलिए कि, जैसा कि
विलियम वर्डस्वर्थ ने कहा है, "बच्चा
ही मुनष्य का पिता होता है।” यद्यपि मैं तुम्हारा
पिता हूँ, तम्हारे में पितृत्व के बीज हैं। तुममें अभी भी वो तत्व
हैं जिन्हें जीवन और वर्षों ने मुझसे छीन लिया है और इस प्रकार तुम मेरे पिता हो।
इसलिए जब मैं तुमकों “प्यारे
बेटे’
कह कर सम्बोधित करता हूँ तो तुम अपने को कमज़ोर मत समझो
बल्कि तुम अनन्त संभावनाओं,सकारात्मकता, कोमलता
एवं आंतरिक शक्ति से युक्त एक प्राणी हो।
बहरलाल, अब जवकि
तुम व्यस्क होने के सिरे पर खड़े हो और अपने व्यावसायिक जीवन और पारिवारिक जीवन
के संसार में डूबकी लगाने वाले हो, मुझे लगा कि मैं तुम्हारे
साथ कुछ विचार शेयर करूँ जो इस समय मेरे ऊपर हावी हैं।
मेरे बेटे, जब तुम
आदमियों के साथ एक आदमी की तरह डील करोगे तब तुम दुनियादार रहो, पर
ज़रूरत से अधिक सांसारिक नहीं। संसार में रहो, पर
संसार को अपने अंदर मत रहने दो। जीवन से
सिर्फ गुज़रो तब,जीवन के माध्यम से
अपना विकास करो।
मेरे प्यारे बच्चे, मैं
तुम्हें सांसारिक सुखों से विमुख होने के लिए नहीं कह रहा हूँ पर तुम उनके पीछे
भागों नहीं और उनमें लिप्त न रहो।
अलग रहो परन्तु अलग दिखो मत। दूसरों से
अलग दिखने का नाटक मत करो। अपने आपको किसी भी प्रकार ‘अलग हट
कर’
मत दिखाओ। जीवन में तुम्हें कितनी ही चिजों से कितने रूप
में जुड़ना पड़ेगा। किन्तु साथ ही साथ तुम्हें चीजों से विलग रहने की क्षमता और
साहस रखना पड़ेगा।
तुम जो भी काम करो या न करो, या जो भी कदम
उठाओ, उसका परिकलन करो, पर जीवन में कभी भी बहुत हिसाबी-किताबी न बनो। धीरे-धीरे
आगे बढ़ो, पर प्रच्छन्न रूप में नहीं । इसी प्रकार पीछे हटो- परिस्थितियों से,
संबंधों से –पर धीरे-धीरे और ऐसे कि पता न चले। तम्हारे
काम या व्यवहार में आकस्मिकता, आघात या आश्चर्य का पुट नहीं होना चाहिए।
जीवन में अविकल,सम्पूर्ण, अखण्ड, समबुद्धि,
विरक्त, निर्लिप्त और वितरागी बनो। मेरा मतलब है कि जो तुम वास्तव में हो और
जैसा तुम दिखते हो उसमें पूर्ण एकाकार होना खहिए। कोई भी विरोधाभास नहीं , कोई भी
विसंगति नहीं। एक सफल, मिथ्याचारी वंचक होने से अच्छा है कि तुम एक ईमानदार
बेवकूफ व्यक्ति बनो। इसलिए हमेशा उच्चतम नैतिक आदर्शों का पालन करो।
स्वाग्रही रहो, पर हठी नहीं और आक्रामक
तो कभी नहीं।
लोगों के प्रति
अच्छे रहो, पर किसी के भी प्रति दास्य वृत्ति मत रखो। कभी यह हो सकता है कि लोग
यह सोंचे कि चूँकि तुम अच्छे हो इसलिए तुम कमज़ोर हो। परेशान मत होओ, तुम हर हाल
में हर हालत में अच्छे रहो।
हमेशा और हर
परिस्थिति में पारदर्शी रहो। याद रखो कि जो भी तुम दूसरो में देखते हो वह तुम्हारे
अंदर है।
लोगों के पीठ-पीछे
ऐसे बात करो मानों वे तुम्हारी बात सुन रहे हों। बल्कि एक कदम और आगे जाओ। उनके
बारे में सोचते समय भी यह सोचो मानों वे तुम्हारे विचारों से अवगत हों। याद रखों
कि किसी के पीठ के पीछे सबसे अच्छा काम उस पीठ को सहलाना है।
याद रखो कि तुम्हें
लोगों को ‘सहन’ करने का अधिकार नहीं है, चाहे तुम उन्हें पसंद न भी करते हो। दूसरो को ‘सहन’ करना एक प्रकार
का अनुग्रह है जिसके हम तुच्छ मानव योग्य नहीं हैं।
हमेशा अपना अंत और
अंत समय मन में रखो। किसी भी घटना या परिस्थिति पर प्रितिक्रिया करते समय हमेशा
याद रखो – ‘यह भी गुज़र जाएगा।‘ यह मंत्र तुम्हारे हर निर्णय का आधार होना चाहिए।
सम्प्रेष्णशील
बनो और रहो। अपने संबंधों को कभी Taken for granted मत लो। वास्तव
में, सम्प्रेषण की गहनता संबंधों की गहनता के समतुल्य होनी चाहिए। लेकिन यह समझे
रहो कि सम्प्रेषण मात्र वाक्-पटुता, वाचलता या डींग हॉंकना नहीं है।
गहरे बनो, ध्यान –परायण बनो और
चिंतनशील बनो। साथ ही कर्मजीवी और चिंतनशील बनो। अपने मन को कभी-कभी विचार शून्यता
की स्थिति में भी लाने का प्रयत्न करो। यह मानसिक अवस्था धुंधली नहीं बल्कि दिवय
होनी चाहिए।
बदले की भावना कभी
भी न रखो। बदला कायरतापूर्ण कार्य है। अपने प्रतिद्वंदियों का मुकाबला अपने स्तर
पर करो। उनसे बराबरी के लिए उनके स्तर पर न उतरो। इसी प्रकार अपने विरोधियों के
प्रति वैमनस्य, शत्रुता या श्रेष्ठता की भावना मत रखो।
याद रखो कि जो
तुम्हारे साथ होता है वह नहीं बल्कि उस पर तुम कैसी प्रतिक्रिया करते हो- ‘यह प्रदर्शित करता
है कि तुम वास्तव में क्या हो।’
गुप्त व्यवहार
मत करो और संगोपनशील मत बनो। फिर भी उन लोगों के वैध हितों का रक्षण करो जो तुम्हारे
साथ अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन
की गोपनीय बातें शेयर करते हैं।
कभी भी विनोद और
हास का भाव मत छोड़ो। अपने ऊपर हँसने के लिए बहुत साहस चाहिए। यह बेहतर है कि लोग
तुम्हें गलत समझे बजाय अपने आदर्शों को छोड़ने के। यह गेहतर है कि तुम जैसे हो
उसके लिए लोग तुम्हें नापसंद करें, बजाय इसके कि लोग तुम्हें पसंद करें तुम जैसे
नहीं हो उसके लिए।
मैं तुम्हारा
आकलन करूँगा तुम्हारे व्यवहार से –‘उनके प्रति जो तुम्हारे लिए महत्व रखते
हैं, पर उनके प्रति जिनका सामाजिक स्तर में तथा-कथित निम्न स्थान है-
ड्रायवर,वेटर्स, नौकर-चाकर, लिफ्टमैन, यह लिस्ट बहुत लम्बी है।’
याद रखो कि अपनी
सरलता और नम्रता से तुम कोई भी परिस्थिति जीत सकते हो। मैं तुम्हे किसी भी प्रकार
की राजनीति या जालबाजी से भी बचने की सलाह दूँगा। हमेशा जवाहरलाल नेहरू का
सिद्धांत याद रखो- ‘सरल और सीधा सत्य सबसे बड़ी कूटनीति है।‘
नम्र बनो, पर शलथ
और शिशिल नहीं। दूसरों का ख्याल करनेवाला बनो, पर अवांछित सेवा अर्पित करनेवाला
या व्यग्र याचक नहीं।
हर चीज़ के प्रति,
यहॉं तक निर्जीव वस्तुओं को भी, एक वैयक्तिक और मानवीय स्पर्श देने की कोशिश
करो। शीघ्र ही तुम पाओगे कि तुम में पारस का गुण है।
मेरी सलाह है कि अपने अनुचार में तुम
आनुपातिक, संतुलित और संयमी बनो। कभी भी अपनी भावनाओं या प्रतिक्रियाओं को इकट्ठा
मत होने दो। नहीं तो वे किसी दिन अचानक फट पड़ेंगे और सारा खेल ख़त्म हो जायेगा।
तुमको किसी भी संबंध से बहुत आशा नहीं
रखनी चाहिए। फिर भी अपने संबंधों के बारे में बहुत स्पष्ट रहो। संबंध बनाने में
कभी जल्दीबाज़ी मत करो। यदि तुम बहुत जलदी किसी के बहुत करीब आते हो तो तुम्हें
उससे और भी तेजी से बहुत दूर जाना पड़ सकता है।
किसी भी मामले पर
बहुत देर तक सोचो नहीं और लटको नहीं, बस उस पर ध्यान लागाओ। यहॉं ध्यान लगाने से
मेरा तात्पर्य किसी निर्जन स्थान पर कोई यौगिक साधना नहीं है। बस किसी मामले पर
गहराई से विचार करो, मन ही मन उस मामले के हर पहलू, हर चरण से गुज़रो, एक निर्णय
लो और फिर उस मामले के परे चले जाओ। किसी भी मामले को अपने ऊपर हावी मत होने दो।
हर पार्टी
(समारोह) का पार्टी (सदस्य) बनो पर अपनी ऐकांतिकता बनाए रखो। मैं निश्चयात्मक स्वर
में कह सकता हँ कि भीड़ में भी अकेले रहना नितांत संभव है । ओर यह आनंदप्रद भी है।
पर, मैं फिर कह रहा हूँ कि तुम जो कुछ करो या न करो उससे तुम्हें अलग नहीं दिखना
है । तुम्हें अलग बनना है। अलग दिखने की प्रवृत्ति ख़तरनाक हो सकती है।
कोशिश करो कि तुम
स्वयं को ऐसी परिस्थिति में मत डालो जहॉं तुम्हें लागों को ‘माफ’ करना पड़े। चीज़े
या अवसर छोटे हो सकते हैं, पर लोग कभी नहीं।
कहावत है कि फरिश्ते
उड़ते हैं क्योंकि वे अपने-आप को हल्के ढंग से लेते हैं। इसलिए चीज़ों को हल्के
ढंग से लो लेकिन चीज़ों को हल्का बनाओं मत और स्वयं को किसी के द्वारा हल्के
में मत लिए जाने दो। बंधन और स्वतंत्रता तो मन के हैं।
अब कुछ बातें ऋण
और भुगतान की । शेक्सपीयर का कथन ‘ न तो लेनदार बनो और न देनदार बनो’ आज भी युक्ति
संगत है। फिर भी आज के प्लास्टिक मुद्रा युग में यह पूर्णत: व्यावहारिक नहीं है।
तथापि यह सुनिश्चित करो कि तुम अपना देय अदा करने में तत्पर हो, विशेषत: उनका जो
तुम्हारी सेवा करते है या तुम्हें कोई सर्विस देते हैं। यह तुम्हारे लिए शर्म
की बात होगी यदि उन्हें तुमसे भुगतान मॉंगना पड़े।
जहॉं तक ऋण की बात
है, पहले उनका उधार अदा करो जिन्होंने तुम्हारे लिए प्यार और सरोकार के चलते,
तुम्हें ब्याज –रहित उधार दिया है- ‘तुम्हारे मित्र
और रिश्तेदार।‘ उसके बाद तुम ब्याज वाले ऋण लौटाओ। आखिरकार, तुम्हारे और
लेनदार के बीच इंटरेस्ट सिर्फ इंटरेस्ट का है। और पारस्परिक प्यार एवं सरोकार
इंटरेस्ट (ब्याज़) से अधिक कीमती होता है।
अपनी जीवन यात्रा
में तुम निश्चित रूप से ण्क जीवन–साथी चुनोगे। मेरी कमाना है कि वह तुम्हारी आत्म-संगिनी
हो। यह अपेक्षा मत रखो कि वह तुम्हारी प्रतिबिम्ब होगी। ऐसा जीवन साथी पाना न तो
संभव हे न काम्य। सबसे अच्छा होगा कि एक स्वस्थ्य विरोध के साथ तुम दोनों एक
दूसरे के पूरक रहो। अनगिनत छोटे-छोटे मामलो में मतभेद ओर कुछ थेड़े से किन्तु ठोस मामलों में पूर्ण
मतैक्य तथा सुसंगति। न तो पूर्ण संघर्ष न ही निरी मृदुलता से काम चेलगा। मित्रों
एवं कार्य-रूथल की भॉंति वही जीवन साथी पाते हैं जिसके आप योग्य हैं।
कभी भी आत्म दण्ड
मत दो। कभी भी अपने को दीन या भाग्य हीन मत समझो। हमेशा आत्म-सम्मान,
संवेदनशीलता, संवेदनग्राहिता ओर आत्म संतुलन की भावना से ओत-प्रोत रहो। कोई बात
नहीं यदि तुममें विदूषकता का भी कुछ अंश हो । हमेशा यह याद रखो कि इस दुनिया में
सर्फि एक व्यक्ति तुमको श्रेष्ठता या हीनता की भावना से ग्रसित कर सकता है और वह
स्वयं तुम हो।
कभी भी संदिग्ध,
संदेहास्पद या अनेकार्थक शब्दों के जाल मेंमत पड़ो। यदि तुम कभी पारिस्थितिक
दुविधा में हो तो बस चुप रहो। अपनी बातचीत या मौन से हमेशा मौन को समृद्ध करो।
तुम अपना सरकारी/
व्यावसायिक कार्य इस प्रकार करो जैसे वह तुम्हारा अपना व्यक्तिगत कार्य हो। साथ
ही, किसी काम का वैयक्तिकरण मत करो।
पूर्णता या श्रेष्ठता
को पाने की कोशिश करो पर पूर्णतावादी बनने की चाह मत रखो । याद रखो कि दुनिया में
कोई चीज़ ऐसा नहीं है जो अपने –आप में पूर्ण हो, सिवाय आत्म-पूर्णता के और सर्वोच्च
शक्ति की पूर्णता के।
छिछले लोग दिखावे
को लेकर परेशान रहते है। सत्व वाले व्यक्ति अन्तरात्मा या अंतर्विवेक चाहते
हैं। जो दिखता है वो प्रवंचना हो सकती है, पर अंतरात्मा स्पष्ट होनी चाहिए। और
अगर तुम्हारी अन्तरात्मा साफ़ है तो तुम्हें लागों या चीज़ों के बारे में नहीं
सोचना चाहिए। लेकिन तुम सिर्फ इसलिए दर्पवान मत हो जाओ कि तुम्हारी अंतरात्मा
साफ़ है। एक दृढ़ और स्पष्ट अंतराम्ता के साथ तुम्हें नम्रता भी जोड़नी चाहिए।
धर्म, विश्वास और
आस्था पर तुम्होरे विचार मैं तुम्होर ऊपर छोड़ता हूँ। तथापि मेरी इतनी सलाह है
कि तुम मताग्रही या हठधर्मी कभी तक बनना। अगर तुम नास्तिक भी होना चाहते हो तो इसे
भी अपना हठधर्म मत बनाओ। यदि तुम किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार उसे अपने
धर्म –पालन में सहायता देते हो तो तुमने अपने धर्म का निर्वाह कर लिया।
यहॉं पर मैं अपने
आपको दार्शनिकता और आध्यात्मिकता की बात करने से रोक नहीं पा रहा हूँ। मुझे आशा
है कि यह भी तुम्हारी मददगार साबित होगी।
धर्म न तो एक शब्द–मात्र है, न
सिद्धांत-मात्र। यह कर्म है। धर्म है-‘होना’ ओर ‘हो जाना’। यह आत्मा का उसमें परिणत हो जाना है जिसमें आत्मा विश्वास
करती है । धर्म यही और बस यही है। धर्म पर
तुम्होर विचार पूर्ण रूप से व्यक्तिक होने चाहिए। अपने गुणों को लेकर नम्र और
अपनी बुरी आदतों को लेकर शर्मसार बनो।
हम चीज़ों को वैसा
नहीं देखते जैसे वे वास्तव में हैं। हम चीज़ों को उस रूप में देखते है जैसे हम
हैं। इसलिए चीज़ों को ‘देखने’ का, उन्हें
महसूस करने का प्रसत्न करो। निर्णयात्मक मत होओ। जो व्यक्ति चीज़ों को उनके सही
परिप्रेक्ष्य में देखता है वह दृष्टा हो जाता है। सरल, कपट-रहित, और शुद्ध चित्त-वृत्ति
के बनो।
अपने मस्तिष्क को
सभी प्रकार के विच्छेदक अहंवाद से मुक्त रखो और उसे विनेयता की ऐसी अवस्था में
ले जाओ जो वैरागी- तपस्वी की शुद्धता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
तुम्हारा जीवन
प्रेम और सुंदरता की एक अनंत यात्रा होनी चाहिए। स्पष्ट है कि मैं यहॉं दैहिक या
बाह्य सुंदरता की बात नहीं कर रहा हूँ। नैतिक सौदर्य के उन्नयन द्वारा तुम्हारी
आत्मा निरपेक्ष सौंदर्य की अवस्था को प्राप्त होगी जो अपने आप में सौन्दर्य
है।
तुम्हें स्वयं
में पाश्चात्य की अवलोकन-शीलता और प्राच्य की चिन्तन-शीलता का समन्वयन रखना
चाहिए।
अपने धार्मिक
अनुभवों और भावनाओं से स्वतंत्र तुम किसी एक आदर्श में निष्ठा रखो। मुधुमक्खी
की तरह सभी फूलों का रस चखो और इस मामले में कोई पक्षपात या भेदभाव न करो।
जीवन में अगर तुम
एक उच्चतर आध्यात्मिक स्तर पर हो तो तुम किसी के भी साथ तदनुभूति रख सकते हो।
तुम किसी के भी साथ ‘फील’ कर सकते हो।
तुम्हारे लिए ‘जानना’ और ‘करना’ पर्यायवाची होना
चाहिए। तुम्हारा उद्देश्य एक ऐसा ‘सम्पूर्ण पुरूष’ बनना होना चाहिए
जिसके जीवन में असीम आदर्शवाद के साथ व्यावहारिक बुद्धि का श्रेष्ठ सम्मिश्रण
हो।
तुम्हें दिल,
दिमाग और हाथ के त्रयी को बराबर का सम्मान देना चाहिए। तुम्हारे अंदर प्रज्ञा और
अच्छाई की जो सुंदर सुसंगति है उसे तुम्हें असहिष्णुता और विद्वेष के किसी शब्द
या व्यर्थ और कटु खण्डन-मंडन से प्रभावित नहीं होने देना चाहिए।
दैवी प्रेम, जो
अकथनीय ऐक्य का सहज प्रवाह हे, को तुम्हें हमेशा आप्लावित करना चाहिए।
सार्वभौमिक अच्छाई में विश्वास रखो। सब कुछ अच्छाई का और अच्छाई के द्वारा है
जो स्वयं में परा- उत्कृष्ट एकत्व है। पर कभी भी बुराई से घृणा मत करो। बुराई
कुछ नहीं बल्कि एक कमतर अच्छाई ही है। दोनों एक ही खान से निकलते हैं।
लाक्षणिकता और
रहस्यात्मकता का आसव तुम तलछट तक छंको। तुम्हारे साथ विशुद्ध चरमानंद का अविचल
प्रवाह होना चाहिए। जो तुम्हारे संपर्क में आते हैं उन्हें तुम्हारी उपस्थिति
में उत्थान का अनुभव करना चाहिए। नि:स्वार्थ भाव ओर आत्म-नियंत्रण सबसे महान
मूल्य हैं। सबसे बड़ी अच्छाई एक शांत मन है और नम्रता सबसे बड़ा धैर्य है। तुम्हें
सबसे पहले वह आचरण करना चाहिए जिसका मुण्डन करते हो। उदाहरण उपदेश से हमेशा अच्छे
होते हैं।
तुम्हारे जीवन
में कुछ मित्र और ज्यादा परिचित होने चाहिए इसका उल्टा नहीं। जीवन अनुकंपा और
भावावेश का मध्यम मार्ग है। अनुकंपा की एक अंजुली और भावावेश की एक चुटकी ही जीवन
का नमक-मिर्च है।
हर चीज़ में
मिताचार ओर संयमन तुम्हारे जीवन का सिद्धांत होना चाहिए। और मैं दुहरा रहा हूँ,
हर चीज़ में मिताचार- खाने में, पीने में, यहॉं तक कि जीने में भी। मेरी इच्छा है
कि ‘स्वर्णिम सिद्धांत’ तुम्हारे जीवन
को नियंत्रित करे।
यह याद रखो कि खान
और पान तुम्हारे शरीर और आत्मा को साथ रखने के लिए बनाए गए हैं, न इससे कम, न
इससे ज़्यादा। यह भी याद रखो कि इस संसार में अनाहार के मुकाबले ज़्यादा खाने से
अधिक लोगों की मौत होती है।
जीवन में कभी
अंधाधुंध मत भागो। पर कोई चीज़ टालो मत ओर विलंबित मत करो। तुम्हें अपने आप खुद
सफल होना है, सापेक्ष रूप में नहीं। इसलिए दूसरों के सापेक्ष अपनी सफलता कभी मत
आंको। मैं तो यह सलाह दूँगा कि तुम अपनी सफलता को आंको ही नहीं।
यह बहुत संभव है
कि कभी-कभी तुम ग़लत समझे या निर्णित किए जाओ, वह भी उन लोगों द्वारा जिन्हें तुम
प्यार करते हो या जिनके प्रति तुम्हारे मन में सम्मान है। इससे तुम परेशान मत
होओ। समय सबसे बड़ा समतावादी है। समय ही सत्य है और सत्य ही दैवीय है इसलिए कभी
भी अपना पक्ष रखने या सफाई देने के लिए उतावले मत रहो। समय के साथ चीज़ें अपने आप
व्यवस्थित हो जाती हैं और अपने आप को सिद्ध कर देती हैं। तो एक समान्य, स्वाभाविक
प्रक्रिया में जल्दीबाज़ी से क्या फायदा ? तुम गलत समझे जा
सकते हो, तुम्हारा मज़ाक उड़ाया जा सकता है, लोग तुमसे दूर हो सकते हैं, तुम्हें
समाज-बहिष्कृत कर सकते हैं। पर यह सब कुछ तुम्हें विचलित नहीं करने चाहिए। साथ
ही, तुम्हें सिर्फ इसलिए दूसरों को नापंसद करने या घृणा करने का अधिकार नहीं है
क्योंकि उन्होंने तुम्हें ग़लत समझा या नापसंद किया।
मेरे बच्चे, तुम
ईमानदार, सच्चे और ऊर्ध्वाधर बनो, पर कटु, क्षतिकर या दाहक नहीं। तुम्हारा सत्यवान
होना तुम्हें अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ मानने का अधिकार नहीं देता। परिस्थिति
चाहे जैसी हो, तुम हमेशा शांत, सुस्थिर और प्रकृतिस्थ बने रहो। परिस्थिति से
मुकाबला करने और उसे सुलझाना सीखो, उससे बच निकलना नहीं। किसी भी परिस्थिति को
अपने ऊपर हावी मत होने दो।
याद रखो कि तुम ही
अपने जीवन के शासक और अपने भाग्य के विधाता हो। हमेशा ए कबादशाह की तरह सोचो और
एक कंगाल की तरह व्यवहार करो। जीवन में सबसे बड़ा संघर्ष अपनी मौलिकता बनाए रखना
है। जहॉं भी संभव हो, दयावान रहो ओर यह जगह, हर स्थिति में संभव है।
अपने व्यक्तिगत
और व्यावसायिक जीवन में तुम्हें बहुत संवाद करना पड़ेगा। अलग-अलग समय पर तुम अलग
मानसिक दशा में होगे। फिर भी इस बात का ख्याल रखना कि तुम्हारी मानसिक दशा तुम्हारे
शब्दों का चुनाव न करे। तुम्हारी मानसिक दशा तो कुछ समय बाद बदल जाएगी पर तुम
बोले हुए शब्द कभी वापस नहीं ले पाओगे। किसी से बातचीत करते समय तुम्हारा
उद्देश्य अभिव्यक्ति होना चाहिए, भाव या प्रभाव प्रदर्शन नहीं। ये पॉंच हमेशा
तुम्हारे पथ-प्रदर्शक होने चाहिए- उत्सुकता (Curiosity), साहस (Courage), आत्मविश्वास (Self-Confidence), अविचलता (Constancy) और दृढ़ विश्वास (Conviction)। जीवन में तुम्हारे
पास बहुत सम्पत्ति हो या न हो, तुममें बहुत उत्कंठा होनी चाहिए।
तुम्हारे विचार,
शब्द, कार्य आदतें, प्रकृति और नियति एक चक्र में चलते हैं और तुम्हारा कर्म
निर्धारित करते हैं।
मैं स्वयं अपने
जीवन में इन गुणों का अनुपालन नहीं कर पाया, कई विसंगतियों ओर कमज़ोरियों के कारण।
इसलिए मैं अत्यन्त उत्सुक हूँ कि तुम इनका परिष्कार और परिपालन करो। मैं जानता
हूँ कि इस पत्र में कई स्थान पर विरोधाभास और पुनरूक्तियॉं होंगी। लेकिन तुम यह
सोचो कि आखिरकार जिंदगी भी क्या है। जिन्दगी और कुछ नहीं बस विसंगतियों,
विरोधाभासों और खोखली , घिसी-पिटी पुररिक्तियों में संतुलन बिठाने का नाम है। मैं
दुहरा रहा हूँ कि संयमन और ‘स्वर्णिम ओसत’ तुम्हारे जीवन के
प्रकाश –पथ होने चाहिए।
मेरे बेटे, मुझे
लगता है कि ऊपर व्यक्त की गई मेरी भावनाएं तुम्हारी जिन्दगी को, अगर जीवन-यापन
को नहीं, सफल बनाएंगी। और यही महत्वपूर्ण है क्योंकि, मेरे बेटे, यह भी गुज़र
जाएगा।
मैं अपना सारा प्यार
और आर्शिवाद तुम्हारे ऊपर उड़ेलता हूँ, मेरे प्यारे बच्चे!
तुम्हारा पिता
sara toh samaj nahi aaya....fir bhi jitna aaya voh bahut badiya tha
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