सोमवार, 20 अप्रैल 2009

छेड़ दे जिहाद -आतंकवाद के खिलाफ

छेड़ दे जिहाद -आतंकवाद के खिलाफ


आतंकवादी तुम क्या आंतकित करोगे हमें ?
हम तो पहले से ही आंतकित हैं
अपनी बेरहम हालात से ,
अपने उन्माद से
अपने ही क्रोध से
अपनी विवषताओं और
अकर्मण्यता से !

आखिर आतंकित होते ही क्यों हैं-
हम जैसे लोग?
क्यों बनते हैं शिकार-
आतंकवादियों के ब्लैक-मेल का ?
क्या लूट ले जायेंगे ,हमसे -
ये आतंकवादी - अपने आतंक के जोर पर ?
धन -संपदा ?
हैं कहॉं जो ये लूट ले पायेंगे हमारी जहन से!
िजन्दगी ?
ये क्या बड़ी चीज ये लूटेंगे,
वह तो हम यूॅं ही ढो रहे हैं- मजबूरी से !
इस कुंठित समाज व्यवस्था में-
है क्या हमारे पास ?
जिसे खोने के भय से हम हुए जा रहे हैं-
आतंकित !
सत्ता,सम्पत्ति और
तथाकथित मान -मर्यादा,
तो बन गई है-
उन चंद लोगों की रखैल-
जिनकी पकड़ में है आज
उत्पादन साधन,निरंकुष प्रशासन
और अंधा कानून!
ब्ुद्धिजीवी, जिन्हें होना चाहिए,
समाज के ऑंख और कान !
इनमें से अधिकांश बन बैठे हैं-
इस कुव्यवस्था के भॉंड!

वे, जो बो रहे हैं, भेदभाव के बीज,
धर्म और भाषा की आड में,
दो -मुहॉं रिशष्ता है उनका ,
आतंक और सत्ता के साथ में!
समाचार की स्वतं;ता के नाम पर -
स्वच्छंद पत्रकारिता द्वारा-
भड़कीले और चटकीले संवाद-
बनाते और बेचते हैं ये लोग!
और तनावपूर्ण वातावरण -
बरकारार बनाये रखते हैं ये लोग !
हैं ये नकाबपोष-
आतंकवादियों से ज्यादा खतरानाक,
आंतकवादी जो महज-
आतंक का खेल - खेला करते हैं इनके इशारों पर-
और ये नकाबपोष बड़े-बड़े दॉंव लगाया करते हैं इन खेलों पर !

भय हो उन्हें - आतंकवादियों से,
जिन्हें डर है कुछ खोने का!
है क्या हम सर्वहाराओं के पास-
जिससे वंचित होने का -
भय हो हमारे मन में ?
उठ रे सर्वहारा - उठ,
छेड़ दे जिहाद- इन आंतकवादियों पर
कर दे बेनकाब - इनके नकाबपोष आकाओं को!
खोने के लिये तो - तेरे पास है नहीं कुछ,
पाने के लिये सारा जहॉं पड़ा है!

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