शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

आम का पेड़

आम का पेड़


वह आम का पेड़ था। बहुत ही घना और फल देने वाला। अपनी जिन्‍दगी की 40 – 45 बहारें देखी थी उसने। इन 40-45 सालों में कितने ही तूफानों से खेला था वह , मगर क्‍या मजाल कि शिक्‍स्‍त की एक हल्‍की सी लकीर भी उसका माथा चूम पाती।

अमरकांत के जीवन में प्रेरणा का स्रोत भी यहीं पेड़ था। अपने घर के ठीक सामने लगे इस पेड़ से वचपन से ही बहुत सारी यादें वाविस्‍ता थीं। झूला झूलने की कोशिश में दरख्‍त से गिरना और दादी अम्‍मा का पेड़ की छाल जला कर उसके जख्‍मों पर बांधना उसे आज भी अच्‍छी तरह याद है। जख्‍म सह कर दूसरों के जख्‍मों को भरने का आदर्श इसी पेड़ से जो सीखा था उसने।

फिर एक दिन दादी अम्‍मा से किसी बात पर तमाचा खा कर घंटों पेड़ के तने से लिपट कर रोना भी कैयो भूल सकता था वह ? एक अनाथ बालक को इस तरह रोता देख कर , जैसे पेड़ से दादी अम्‍मा की शिकायत कर रहा हो, दादी अम्‍मा की भी ऑंखें भर आयी थी।

हॉं वह अनाथ था, किलकुल अनाथ। उसके पैदा होते ही उसकी मॉं ने दम तोड़ दिया था और पिताजी भी 10-15 दिनों बाद चल बसे थे, दिल के मरीज तो थे ही , ऊपर से यह हादसा। अब अमरकान्‍त के पालन-पोषण की सारी जिम्‍मेदारियाँ दादी अम्‍मा पर आ पड़ी थी। य‍ह जिम्‍मेदारी दादी अम्‍मा ने अपने जीते-जी खूब निभाई । सरकार से मिलने वाली पेंशन के सहारे उसे पढ़ाया लिखाया। उसकी एक – एक जिद को पूरा किया । दादी अम्‍मा के लाड़ व प्‍यार के साये तले खेल कूद कर उमरकान्‍त 17 वर्ष का नवयुवक बन गया। तभी वक्‍त के जालिम हाथों ने दादी अम्‍मॉं को भी दबोच लिया। इस दुनिया में अमरकान्‍त अब बिलकुल अकेला था।

वक्‍त के खेल भी खूब निराले होते हैं। लेने पर आ जाए तो एक आध मुस्‍कुराहट भी नहीं छोड़ता यह वक्‍त , बल्कि मनुष्‍य की जीवन नैय्या को दुख दर्द के असीम सागर में धकेल कर खुद साहिल पर खड़ा मुस्‍कुराता रहता है। कभी यही वक्‍त कुछ देने पर आ जाए तो इतना कुछ दे देता है कि कि समेटते नहीं बनता । घर , आंगन, गलियारे सभी कुछ खुशियों की महक से महकने लगते हैं। मनुष्‍य की जीवन नैय्या एक बार फिर शांति तथा सुख के सागर पर सरलता और सहजता के साथ सीधी तरह आगे बढ़ने लगती है वक्‍त का कोई नया खेल देखने के लिए ।



कुछ ऐसा ही खेल, अमरकान्‍त के साथ खेल गया था यह वक्‍त। उसके जीने का आखिरी सहारा जो दादी अम्‍मां के रूप में था, वह भी छीन लिया था इस वक्‍त ने । उसने ला खड़ा कर दिया था उसे एक ऐसे मुकाम पर, जहॉं से हर रास्‍ता कॉंटों और खाइयों से होकर गुजरता था। ऐसे मुकाम पर पथिक का भ्रमित होना स्‍वाभाविक बात थी।

पेड़ के नीचे बैठा अमरकांत भी कुछ ऐसे ही भ्रमित होकर अपने जीवन की दिशा को ढूँढ़ रहा था कि किसी की आवाज ने उसे चौंका दिया। ‘बेटे अमर।’ यह पड़ोस के जुम्‍मन चाचा थे जो उसके समीप आकर बैठ गए थे। कुछ क्षणों के लिए अम्‍रकान्‍त उन्‍हें देखता रहा फिर वह अपनी उदास ऑंखों से आसमान की तरफ देखने लगा। जुम्‍मन चाचा फिर बोले ‘ बेटे अम्‍र। होनी को कौन टाल सकता है ? यह तो कुदरत के फैसले हैं जो हमें झेलने पड़ते हैा। समढ लो कि दादी अम्‍मॉं की जिन्‍दगी इतनी ही थी , मगर तुम्‍हारे सामने तो अभी पूरी जिन्‍दगी पड़ी हुई है। ऊठो संघर्ष करो और निकालो अपना हिस्‍सा इस दुनिया से’। फिर थेड़ी देर रूक के वे बोले ‘ और यह मत समझो कि तुम अब अकेले हो, हम सब तुम्‍हारे साथ हैं।‘ जुम्‍मन चाचा के स्‍वर में बड़ी आत्‍मीयता थी।‘ ‘ देखो इस आम के पेड़ को ‘’ जुम्‍मन चाचा ने आगे कहना शुरू किया ‘पहले यह भी एक नन्‍हा – मुन्‍ना पौधा था, बिलकुल तुम्‍हारी तरह। शुरू की देखभाल के बाद पौधे ने अपनी जड़ें जमीन में ऐसी मजबूत कर लीं कि बस बढ़ता ही चला गया। लाख ऑंधी तूफान आये इये जड़ से उखाडं फेंकने के निये मगर यह बड़ी दृढ़ता और सहजता से उसके साथ लड़ता रहा। कभी हार नहीं मानी इसने उन तूफानों से। फिर देखते तनावर दरख्‍त बन गया यह।‘’

‘‘और आज। आज, यह दूसरों का सहारा बना हुआ है। स्‍पवंय धूप में जलता है , मगर दूसरों को छाया देता है । बारिश में भीगता है , परन्‍तु अपनी डालियों पर बैठे पंछियों को भीगने से बचाता है । फिर यही पंछी इसके मीठे-मीठे आम खाकर अपना पेट भरते है और रात गये अपना सर उसकी गोद में टिका कर सो जाते हैं। यह रात भर जगकर उनकी हिफाजत करता है, अपनी जगह पर तैनात बिल्‍कुल एक मुस्‍तैद फौजी की तरह।‘’

‘’बेटे अमर । ‘’ वह उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोले -‘’इस पेड़ को अपनी जिन्‍दगी का आदर्श बना लो, यह आदर्श तुम्‍हे अपनी मंजिल पाने में सार्थक सिद्ध होगा।’’

पेड़ के प्रति अमरकांत के मन में पहले से ही आस्‍था थी, परन्‍तु जुम्‍मन चाचा की बातों से वह इतना प्रभावित हो गया कि बहुत जल्‍द ही वह और पेड़ दो तन एक मन बन गये। अब उसके हर काम में पेड़ से ली गयी प्रेरणा की झालक मिलने लगी। परिणामस्‍वरूप 0-8 साल की लगातार मेहनत से अमरकांत ने वक्‍त से वह सब कुछ हासिल कर लिया जो किसी इंसान के जीवन का आवश्‍यक अंग होता है। एक अच्‍छा सा घर, नौकरी, पत्‍नी अौर इन्‍हीं बातों ने उसे आज एक तनावर दरख्‍त बन जाने का एहसास दिलाया बिलकुल आम के पेड़ की तरह।

दिन महीनों में और महीने सालों में परिवर्तित होते रहे। इस बीच अमरकांत और आम का पेड़ एक समीकरण में बंधते चले गए। अब वह भी अपने परिवार की देख भाल , बिल्‍कुल आम की पेड़ की तरह कर रहा था। कभी धूप में जलकर तो कभी बारिश में भीगकर और कभी रातों में जाग कर अपने परिवार का रक्षण किया था उसने । उसके सुख में में अपने सुख को उनके दु:ख में अपने दु:ख को महसूस किया था।

फिर वह दिन भी आ गया जब इसका बेटा अजय पढ़ लिखकर एक बड़ी कम्‍पनी में बड़े पद पर काम करने लगा। डेढ़ दो साल बाद उसकी शादी भी कर दी गयी। फिर नई नवेली दुल्‍हन के आने से घर में और भी रोनक आ गई।

पेड़ की प्रेरणा से वह इतनी जल्‍दी इतना सब कुछ हासिल कर लेगा यह तो उसके ख्‍याल व गुमान में भी न था। कभी तो उसे ऐसा लगता जैसे वह एक सपना देख रहा है । कभी वह मन ही मन सोचन लगता क्‍या वाकई वक्‍त ने उसे सब कुछ दे दिया है ? इस विचार के मन में आते ही संशय का एक हल्‍का सा कंपन उसके पूरे शरीर को प्रकंपित कर जाता । फिर इस स्थिति से संभलते ही उसकी नजर बड़ी आत्‍मीयता लिए पेड़ की ओर चली जाती ।

ऐसा ही एक शाम वह बरामदे में बैठा पेड़ की ओर देख रहा था कि एक पंछी पेड़ के तने से आकर लिपट गया। यह पंछी जो थोड़ी देर पहले पेड़ की डाली पर बैठा था उसे तने से चिमटते देख अमरकांत को आश्‍चर्य हुआ। अगले ही क्षण आश्‍चर्य की जगह गुस्‍से ने ले ली। वह पंछी जो कटफोड़वा जाति का था, खटा-खट अपनी चोंच पेड़ के तने पर जमाए चला जा रहा था। एक क्षण को उसे ऐसा लगा, जैसे कोई तेज नुकीला हथियासर उसके सीने पर घाव बनाता चला जा रहा है। वह दर्द से व्‍याकुल हो उठा। इस स्थिति से संभलते ही वह पेड़ की ओर दौड़ा। बड़े जोर से उसने एक पत्‍थर पंछी की ओर उछाल दिया । इससे पहले कि वह पत्‍थर उसे लगता वह उड़कर पास के दरख्‍त पर जा बैठा।

‘’कल तक तो यह पंछी उसकी छाया में पल , बढ़कर अपने आपको सशक्‍त करता रहा और आज उसी प्राप्‍त शक्ति से उसके तने पर घाव बनाये जा रहा है।’’ इस बात के मन में आते ही वह भयाक्रांत हो उठा। पेड़ और उसके बरच का समीकरण उसे याद आ गया था।’’ ओह। तो क्‍या मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही होने वाला है । नहीं – नहीं ऐसा नहीं हो सकता । मेरा बेटा इस पंछी की तरह अहसान फरामोश और निर्दयी नहीं है , जो मेरे मन में छेद कर दे।‘’ मगर वह अन्‍दर ही अन्‍दर यह‍ बात महसूस किये बिना न रह सका कि केवल अपने मन को सांत्‍वना दे रहा है । उसका दिल घबराने लगा। माथे से पसीना पोछते हुए उसने एक नजर फिर पेड़ के तने पर डाली । चोंच के बहुत सारे गहरेनिशान देखकर उसका दिल करूणा से भर आया । फिर अनायास ही उसका हाथ तने पर फिरने लगा। जैसे वह पेड़ को सहलाना चाहता हो , उसे तसल्‍ली देना चाहता हो। तभी एक आवाज सी महसूस कर वह चोंक पड़ा ‘’ अमरकांत । तुम्‍हारी ऑंखों में ऑंसू। अरे यह तो कुदरत के फैसलें है जो हमें झेलने पड़ते है।‘’

वह चौंक गया । उसने चारों ओर निगाह दौड़ाई। एकाएक उसे जुम्‍मन चाचा की याद आयी । मगर जुम्‍मन चाचा को गॉंव छोड़े तो जमाना हो गया है।

फिर कौन था यहॉं ? वह अपने आप में बड़बड़ाया।

’’उस दिन जुम्‍मन चाचा की बातें मैं भी बड़े ध्‍यान से सुन रहा था। ठीक कहा था जुम्‍मन चाचा ने, मैंने अपनी जिन्‍दगी में कभी किसी से हार नहीं मानी। मगर वह सब के सब मेरे लिए गैर थे और यही कारण था कि मैं उनसे बड़ी ढिठाई से लड़ता रहा था।’’

‘’मगर आज । आज, यह लड़ाई मेरे अपनों के साथ है, जिसे मैं जीत कर हारना नहीं चाहता।‘’

‘’अमरकांत। पेड़ की आवाज रूंध गयी थी। कुछ देर रूक कर फिर उसने क‍हना शुरू किया’’यह कठफोड़वा पंछी जो मेरे तने में सुराख बनाना चाहता है आज से चंद महीनों पहले एक नन्‍हा-मुन्‍ना प्‍यारा-प्‍यारा सा लगने वाला बच्‍चा था।’’इसकी मॉं इसे मेरे सहारे छोड़ कर दाना चुगने चली जाती थी, तो यह यही मेरी ओर बड़ी मासुमियत से देखता रहता था। इसकी प्‍यारी सी मूरत, मोहिनी सी सूरत मुझे आज भी अच्‍छी तरह याद है । तब इसकी देख भाल मैं ही करता था। इसे हवा के हल्‍के-हल्‍के झोकों से मीठी नींद सुला दिया करता था मैं। इसने मेरी डालियों पर कितनी बार झूला है । मेरे आम खा कर पेट भरने वाला यह पंछी आज मुझे ही परास्‍त करना चा‍हता है, यह मेरा दुर्भाग्‍य नहीं तो और क्‍या।‘’



‘’ मगर अमरकान्‍त । मुझे इससे कोई शिकायत नहीं है। बल्कि एक तरह के सुख का अनुभव मैं अपने मन में कर रहा हूँ कि चलो इस काम को करके इसे खुशी तो हासिल हो रही है, क्‍योंकि इसकी खुशी में ही मेरी खुशी है अमरकांत इसे पत्‍यार मार कर तुम मेरी खुशी छीन नहीं सकते अमरकांत।‘’ वह थोड़ी देर रूक कर बोला।

अपने हाथ पर दो कतरे आँसुओं के देख्‍रा कर अमरकांत ने आश्‍चर्यचकित होकर पेड़ की ओर देखा। हजारों गम थे, जो एक साथ मिलकर पेड़ की ऑंखों में सिमट आये थे। सदैव हंसते, मुस्‍कुराते और खिलखिलाते रहने वाला उसका यह दोस्‍त आज हजारों गम की परछाइयॉं अपने चेहरे पर ओढ़े खड़ा था। पेड़ की यह हालत उससे देखी न गयी, वह दर्द से व्‍याकुल हो ऊठा। ‘’क‍हीं मेरे घर भी कोई कठफोड़वा तो नहीं पल रहा है’’, इस विचार से वह आंकित हो ऊठा। इब इस स्थिति में एक पल भी पेड़ के नीचे रूकना उसके लिए कयामत से कम न था, वह तेज कदमों से अपने घर की ओर बढ़ता चला गया।

रात के ठीक दस बजे रहे थे। वह आहिस्‍ता-आहिस्‍ता कदम बढ़ाता हुआ अपने कमरे में दाखिल हो गया । कमरे में अपनी पत्‍नी पार्वती की ऑंख लगी देख कर , उसे देर से आने का अहसास हुआ। पास वाले कमरे में जहॉं उसकी बहू और बेटा सोया करते थे वहॉं भी खामोशी छायी हुई थी । उसने मुनासिब नहीं समझा कि किसी को खाना देने के लिए जगाए। वैसे भी वह खाना खाने की मन:स्थिति में नहीं था। वह एक गिलास पानी पीकर लेट गया, नींद उसकी ऑंखों से कोसों दूर थी।

अभी उसे लेटे चन्‍द मिनट ही गुजरे थे कि पास वाले कमरे से कुछ अवाजें सुनाई पड़ी। यह उसकी बहू और बेटा थे, जो आपस में बातें कर रहे थे । उसने उस ओर ध्‍यान देना मुनासिब न समझा मगर अगले ही क्षण आवाज कुछ तेज होती चली गयी। अब अमरकांत का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। मन में पहले ही बहुत सारी संशय की बातों ने घर कर रखा था और आज पहली बार अपनी कहू की तेज आवाज सूनकर वह बेचैन हो ऊठा। ‘’जरूर कोई बात है ‘’ यह सोच कर वह धीरे-धीरे कदमों से कमरे की ओर बढ़ता चला गया ।

करीब जा कर अमरकांत ने जो कुछ सूना , उसके बाद उसे अपने कानों पर विश्‍वास ही नहीं आर रहा था।‘’ जब तुमने इस गॉंव को छोड़ शहर में बसने का इरादा कर ही लिया है , तो भला मुझे क्‍या आपत्ति हो सकती है । मैं कल ही बाबूजी से अनुमति ले लुँगा अौर तुम मो जानती हो वह मेरी किसी बात को नहीं टालते ।‘’ अपने बेटे के मुँह से निकले हुए यह वाक्‍य उसके मन मस्तिष्‍क पर हथौड़े बरसाने लगे। उसे ऐसा लगाा जैसे जैसे बहुत सारे कठफोड़वा पंछी उसके सीने पर एक साथ घाब कर रहे हों। इतनी बड़ी बात अजय ने कितनी सहजता से कह डाली थी । वह दर्द से बिलबिला उठा, अचानक उसने अपने सीने में एक टीस सी महसूस की । अपने दिल पर हाथ रखे वह बिस्‍तर पर लौट आया। एक नजर उसने पास ही सोई पार्वती पर डाली, जो बड़े ही सुकून से निद्रामग्‍न थी । उसे जगाने के लिए एसने अपने हाथ बढझ़ाए मगर वे उसे स्‍पर्श न कर सके।

‘’नहीं, पार्वती इस तुफान को झेल नहीं पाएगी’’ इस विचार के मन में आते ही उसने अपने आपको बिस्‍तर पर गिरा दिया।

‘’तो क्‍या तू उस तूफान को ऐल पायेगा ?’’ अपने ही प्रश्‍न से वह तिलमिला गया।

‘’न‍हीं,नहीं। अजय और छिब्‍बू तो मेरे प्राण हैं। भला मैं उनके बगैर कैसे जी पाऊँगा ? छिब्‍बू मेरा पोता जिसका रोना और हँसना भी मैं ठीक तरह से देख नहीं पाया हूँ। जिसकी शरारतों की छाप इस घर के कोने – कोने में हैं। कहॉं से देख पाऊँगा मैं ? छिब्‍बू के बिना यह घर सूना-सूना हो जाएगा।’’

‘’नहीं मैं अजय को नहीं जाने दूँगा।’’ वह दृढ़ निश्‍चयी होकर बोला।

’’तू उसे जाने नहीं देगा और बहू उसे यहॉं रहने नहीं देगी। क्‍या तू चाहता है कि तेरा अजय जिसे तू बचपन से लेकर आज तक सिर्फ खुशियॉं ही देता चला आया है, दो पाटों में पिसकर लहूलुहान हो जाए ? ’’ यह उसकी आत्‍मा की आवाज थी जो उसे कचोट रही थी। वह बिल्‍कुल हताश होकर रह गया।सीने का दर्द अपनी परम सीमा पर पहुँच गया था। पार्वती अब भी गहरी नींद में सोयर हुई थी । एसने एक नजर भर कर उसकी ओर देखा, फिर अपनी ऑंखें बन्‍द कर सीने को सहलाने लगा। उसकी ऑंखों में ऑंसू आ गये असज वह अपनी ही विवशता पर रो रहा था वक्‍त एक बार फिर उसके सामने भयानक खेल खेल रहा था और अबकी बार खिलाड़ी था उसका अपना ही खून। इधर आम का पेड़ भी एक भयानक स्थिति से गुजर रहा था। कठफोड़वा अपने काम में एक बार फिर तन्‍मयता से जुट गया था। अबकी बार उसके काम करने की गति इतनी तेज थी मानो अगले ही पल वह इस पेड़ को धराशायी करना चाहता हो। इधर अमरकांत के सीने का दर्द था कि रूकने का नाम नहीं ले रहा था।

वह रात दोनों पर ही प्रलयंकारी बन कर सवार थी। दोनों ही वक्‍त के रहम व करम पर मजबूर व बेबस एक ऐसी सुबह का इंतजार कर रहे थे, जहॉं अमरकांत की बोद में छिब्‍बू खेल रहा हो तो पेड़ की डालियों पर पंछी ढूल रहे हों। एक ऐसी सुबह , जिसमें अमरकांत और आम का पेड़ फिर अपना सुख-दुख एक दूसरे को सुना तथा बीते दिनों को याद कर सकें।

लेकिन वक्‍त को कुछ और ही मंजूर था। ठीक सुबह साढ़े पॉंच बजे , जहॉं एक ओर मंदिर मेंघंटा नाद हो रहा था तो दूसरी ओर मस्जिद में अजान गूंज रहीं थी , एक जोरदार कड़कड़ाहट की आवाज फिजा में उभरी, कठफोड़वा अपना काम पूरा कर चुका था। आवाज से पार्वती की ऑंचों खुल गयी, वह उठकर बड़ी तेजी से बाहर की ओर चली गसी , ओर यह देख कर कि आम का पेड़ पूरी तरह धराशायी हो चुका है, और इर्द-गिर्द पूरा मोहल्‍ला जमा हो गया है, वह दौड़ी-दौड़ी अमरकांत को जगाने चली आई।

‘’ अजी उठो जी। देखो तुम्‍हारा आम का पेड़ गिर गया , देखो । तुम्‍हारा आम का पेड़ गिर गया , उठो, उठो न । देखो / तुम्‍हारा आम का पेड़ गिर गया । उठो, उठो जी ।..........’’

फिर अगले ही क्षण उसके चेहरे पर एक खौफ छा गया और एक भयानक चीख के साथ वह अमरकांत से लिपट गयी । सारा मोहल्‍ला अमरकांत के धर जमा हो गया था। जिसमें उसका अजय भी था, वह भी थी और उसका छिब्‍बू भी । मगर नहीं था तो अमरकांत । और रहता भी कैसे ? वह तो कब का अपने दोस्‍त के साथ जा चुका था।

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