सोमवार, 20 अप्रैल 2009

सिगरेट

सिगरेट

सिगरेट फूॅंक-फूॅंक कर उड़ा रहे हो धुऑं।
जानकर भी यह सत्य की खोद रहे हो मौते-कुऑं॥
सिगरेट के हर पैकेट पर लिखी -चेतावनी नहीं तुम्हें कोई परवाह ।
लगता है धुएं की तलब ने ,कर दिया है तुम्हें लापरवाह॥
क्या वजह है कि तुम -रमे हो, कषों की गुलामी में ।
बेखबर,बेपरवाह लगे हो तुम ,अपने फेफड़ों को जलाने में।
कष दर कष ,खींच-खींच,तुम जला रहे हो सिगरेट को!
या फिर सिगरेट ही जला रही है,तुम्हारी जिन्दगी की फितरत को॥
सोचा कभी क्या ? जरूरत क्यों , इस कृत्रिम उत्तेजक की।
इच्छा शक्ति जागृत करों और छोड़ों आदत इस व्यसन की॥
स्वतः स्फूर्त हो संचालित करो अपन सोच ।
जरूरत ही न होगी ढोने की धूम्रपान की पहचान ।
बघारता है वह निश्चित ही,झूठीमूठी षान॥
घुऑं जब फूॅंकते हो,व्यवहार अभ्रद करते हो तुम ।
पास बैठ न पीने वालों की तकलीफ बढ़ाते हो तुम॥
प्रदूषित तो करते ही हो अपने आस-पास का वातावरण।
छुपाते हो अपना खोखलापान,फेलाकर धुएॅं का आवरण॥
बाज आओ अब भी भी वक्त है जब तुम्हारे पास।
छोड़ो किल्लत निकोटिन की और काम करो कुछ खास॥
पाओ काबू तलब पर ,बने न रहो धूग्र के गुलाम ।
धूम्रपान को त्यागकर करो नई जिन्दगी को सलाम ॥

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