सोमवार, 20 अप्रैल 2009

काश्मीर की कहानी

जय बाबा बफार्नी भूखे को अन्न,
प्यासे को पानी,
काश्मीर की वादियों में,
सुनी जब यह वाणी
मानस पटल पर घिर आई-
काशमीर की कहानी।
सोचने को मजबूर,
किया क्या इन कश्मीरियों ने कसुर।
जिन्दगी जो हो रही है-इनकी बेमानी,
जकड़े हुए हैं हर शख्स को हरदम परेशानी।
पिस रहे हैं ये बेचारे -दो पाटों के बीच
एक फोजी दस्ते दूसरे ओर -
आतंकवादी रहे हैं इन्हें भींच
परम्परा से हैं ये, इन वादियों के निवासी,
पर हालात ने इन्हें
आज
बना दिया है
अपने ही घर में विदेशी ।
था जो जन्नत जमीं पर
-बन गया है उग्रवादियों का डेरा,
डालना पड़ रहा है घेरा।

कश्मीर तेरी हालत है बड़ी विकट,
जिन्दगी तेरी गई है अधर में अटक।
है जो तू हिन्दोस्तानी -
क्या इसमें भी तुझे शक है,
निकलना तो इस कश्म-कश से-
तुझको स्वयं है।
तू हिन्दू है या मुसलमां,
है या डोगरा-
ठान ले न बनेगा,
उग्रवादियों का मोहरा।
पाकिस्तान अगर पाक है ?
तो फिर क्यों वहाँ आग है?
सैंतालीस में गया मुजाहिर, क्यों आज बेताब है ?
अपने ही मजहबियों में क्यों वह मुहताज है ?

अपनी जमीं से उखड़ा आदमी -
उस दरख्त के समान है ,
जो तूफा से उखड़कर,
हो जाता बे निशाँ है।

धर्म औ मजहब के नाम पर
जब-जब बंटा इन्सान है-
इन्सानियत को ही तब-तब,
होना पड़ा कुर्बान है।
कश्मीर तेरी कहानी है बड़ी पुरानी,
तुझे ही दूर करनी है परेशानी।
कश्मीर की वादियों में,
गूँज रही है वाणी जय
जय बाबा बफार्नी,
भूखे को अन्न -
प्यासे को पानी

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