सोमवार, 20 अप्रैल 2009

गजल

गजल

जितनी गरज थी उतना बरसा नहीं है पानी,
इस बार भी नदी में उतरा नहीं है पानी,
बरसा तो, इतना बरसा ये हाल हुआ घर का ,
टूटे हुए छतों में रूकता नहीं है पानी,
पानी में जहर इतना नदियों के मिल चुका है,
जैसी थी शक्ल वैसा दिखता नहीं है पानी,
साजिश दिलों में नफरत की आग है आँखों में,
ऑखों में मोहब्बत का दिखता नहीं है पानी ।
मौसम के खुशनुमा हर लम्हे का घूट पी लो,
मुट्ठी में हन पलों का रूकता नहीं है पानी।

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