रविवार, 26 अप्रैल 2009

और मेरी जेब कट गई !




और मेरी जेब कट गई !


बारह वर्ष पहले की बात है मैं दिल्‍ली घुमने गया था। उस समय मेरी आयु करीब 28 वर्ष थी । उत्‍तरी भारत, दिल्‍ली तथा मध्‍य भारत में ठंड का आगमन हो चुका था। दिल्‍ली में 03 दिन अच्‍छी खासी ठंड में घूमने के पश्‍चात मैंशाम की अमृतसर-दादर एक्‍सप्रेस से वापसी यात्रा पर निकल पड़ा। यह गाड़ी सबरे 08 बजे के लगभग भोपाल पहुँचती है।

बड़ा शहर पास में हो तो आरक्षित डिब्‍बों में दैनिक यात्रियों की भीड़ बढ़ जाती है। मेरी सीट पर दो सुन्‍दर युवतियॉं बिना पूछे विराजमान हो गई। उन्‍होंने मुझसे या किसी और से पूछना जरूरी नहीं समझा। फिर भी मैंने उनसे अपना प्रतिरोध दर्शाया । मैं भी क्‍या करता , उसमें एक युवती ने तत्‍काल अपना पक्ष बिना हिचकिचाहट के रखा ‘’एक घंटे बाद हम लोग उतर जाएंगे, उसके बाद आप अपनी यह सीट अपने साथ ही लेते जाइयेगा।’’

मैं युवती की बात सुनकर झुंझलाया। गुस्‍सा तो बहुत आया लेकिन मैं चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। एक घंटे पश्‍चात यात्रियों की हलचल से ज्ञात हुआ कि थोड़ी देर में भोपाल जंक्‍शन आने वाला है। ठंड के मौसम में सुनहरी धूप खिली हुई थी।मैं भी सुबह चाय पीने के चक्‍कर में था। अपनी सह यात्री सुन्‍दर युवतियों की बातों से अब तक जान चुका था कि दोनों कॉलेज छात्राएं हैं। लेकिन उनमें उतरने के लिए कोई हलचल न देखकर मैंने सोचा शायद इन्‍हें और आगे जाना है। गाड़ी रूकने के पश्‍चात सुनहरी धूप में गरमागरम चाय पी जाए ऐसा मैं सोच कर अपनी सीट से उठा ही था कि उनमें से एक युवती ने सवाल दागा ‘’ क्‍या आप नीचे प्‍लेटफार्म पर जा रहे हैं ? मैंने कहा ‘’हॉं,चाय पीने के लिए ।’’ तब उसने आग्रह से कहा ‘’आते समय हमारे लिए दो कप चाय लेते आइएगा।’’ इतना कहकर उसने अपने पर्स से पैसे निकालने का दिखावा किया तो मैंने कहा कि पैसे बाद में दीजिएगा। ठण्‍ड होने के कारण मैंने अपना गर्म कोट पहन लिया जिसकी अन्‍दरूनी पॉकेट में रेल टिकट, पैसे रखेथे। कोट के आगे का बटन खुला हुआ था । मैंने प्‍लेटफार्म पर चाय पी और उन दोनों के लिए दो प्‍याला चाय लेकर ट्रेन में चढ़ा , तभी ट्रेन सरकने लगी । मैं अपनी सीट के पास आ गया । वह सुनदर युवतियॉं मुझे देखने के साथ ही खड़ी हो गईं और कहा ‘’आप चाय पकड़े रहिए, हम एक मिनट में आ रहे हैं।’’ इतना कहकर मेरे दाहिने हाथ के नीचे झुकती हुई वे दोनों युवतियॉं डिब्‍बे में आगे बढ़ गईं। रेल धीरे-धीरे,रेंगने के बाद रफ्तार पकड़ने लगी। मैं चाय का प्‍याला पकड़े खड़ा रहा और मेरा ध्‍यान इस तरफ था कि कही चाय छलक कर दूसरे सह यात्रियों के ऊपर न गिरे। करीब एक मिनट के बाद सामने बैठे सज्‍जन जो कि दैनिक यात्री थे और उन दोनों सुनदर युवतियों को गाड़ी से उत्‍रते देखा था मुझसे कहा ‘’भाई साहब आप अपना पॉकेट देख लीजिए।’’ मैंने तत्‍काल अपना एक चाय का प्‍याला डनहें पकड़ा दिया और कोट के अन्‍दरूनी पॉकेट को टटौला तो पाया कि रेल टिकट के साथ पैसे भी गायब थे। हमारे चहरे पर उड़ती हवाइयॉं देखकर उन्‍होंने पूरा किस्‍सा भांप लिया । मैं कुछ बोलता इसके पहले ही टिकट चेकर महोदय पधारते दिखे। मैंने उन्‍हें सारी परिस्थितियॉं समझाई लेकिन वह मानने को तैयार नहीं थे कि मेरा टिकट व पैसे कोट के पौकेट से उन दो सुनदरियों द्वारा उड़ा दिए गए हैं।

फिर मेरे सहयात्री ने जिन्‍होंने मुझे उन युवतियों के बारे में आगाह किया था मेरे पद्वक्ष में टिकट चेकर महोदय से आग्रह किया । मेरे अनुनय विनय करने पर टिकट चेकर महोदय न सिर्फ मान गए बल्कि मुझे भुसावल तक छोड़ने का वादा भी किया और अपने कर्मचारियों को इटारसी में बताकर चले गए। गाड़ी रात 11 बजे भुसावल पहुँची । अब मैं पूर्णत: भगवान भरोसे था तथा उन दो सुवतियो को कोस रहा था । ट्रेन की उस रात से शायद ही और कोई त्रासदाई रात मैंने अपनी जिन्‍दगी में गुजारी हो।

किसी तरह गाड़ीसुबह के उजाले में कल्‍याण पहुँची । मैं प्‍लेटफार्म के दूसरी ओर उतर कर लगभग दौड़ते हुए रेल्‍वे की चारदीवारी से जल्‍द सेजल्‍द बाहर निकला चाह र‍हा था। अचानक एक टिकट चेकर की मुझ पर नजर पड़ी । उसने कहा ‘’पतली गली से कहॉं जा रहे हो ? ऊपर आ जाओ वरना मुझे भी तुम्‍हारे पीछे दौड़ना पड़ेगा।’’ मरता क्‍या न करता प्‍लेटफार्म पर आना ही पड़ा।‘’भले आदमी ! भाग क्‍यों रहे हो ?’’ टिकट चेकर ने पूछा । फिर मैंने अपनी पूरी भोपाल की राम कहानी सुनाई। पता नहीं उन्‍होंने विश्‍वास किया या नहीं पर अचानक कहा ‘’ अच्‍छा, क्‍या तुम विश्‍वास के दोस्‍त हो ?’’ अब मुझे भी याद आया कि यह मेरे दोस्‍त विश्‍वास के जीजाजी है और उसके यहॉं मिल चुके हैं। ‘’ खैर जाओ’’ उन्‍होंने मेरी ‘’हॉं’’ सुनकर कहा। चलते – चलते मुझे उनके शब्‍द सुनाई दिए ‘’विश्‍वास भी कैसे-कैसे लोगों से दोस्‍ती रखता है ! ’’ मुझे लगा कि

‘’मेरी जेब तो कट गई भोपाल में, पर नाक कटी आकर कल्‍याण में’’

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